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________________ ६७] जैन दर्शन में आचार मीमांसा (१५) लोकान्तगमन (१६) शाश्वत-स्थिति धर्म का यथार्थ श्रमण पाए बिना कल्याणकारी और पापकारी कर्म का ज्ञान नहीं होता। इसलिए सबसे पहले 'श्रुति' है। उससे आत्म और अनात्म तत्त्व की प्रतीति होती है। इनकी प्रतीति होने पर अहिंसा या संयम का विवेक आता है। आत्म-अनात्म की प्रतीति का दूसरा फल है—गति-. विज्ञान । इसका फल होता है-गति के कारक और उसके निवर्तक तत्त्वो का ज्ञान-मोक्ष के साधक-बाधक तत्त्वो का ज्ञान (मोक्ष के साधक तत्त्व गति के निवर्तक हैं, उसके वाधक तत्त्व गति के प्रवर्तक ) पाप का विपाक कटु होता है। पुण्य का फल क्षणिक तृप्ति देने वाला और परिमाणतः दुःख का कारण होता है। मोक्ष-सुख शाश्वत और सहज है। यह सब जान लेने पर भोग-विरक्ति होती है । यह (आन्तरिक कषायादि और बाहरी पारिवारिक जन के)संयोगत्याग की निमित्त बनती है। संयोगो की आसक्ति छुटने पर अनगारित्व आता है। संवर-धर्म का अनुशीलन गृहस्थी भी करते हैं। पर अनगार के उत्कृष्ट संवर-धर्म का स्पर्श होता है। यहाँ से आध्यात्मिक उत्कर्ष का द्वार खुल जाता है। सिद्धि सुलभ हो जाती है। उत्क्रान्ति का यह विस्तृत कम है। इसमें साधना और सिद्धि-दोनो का प्रतिपादन है। इनका संक्षेपीकरण करने पर साधना की भूमिकाएं पांच बनती हैं। साधना की पांच भूमिकाएं:(१) सम्यग-दर्शन (२) विरति (३) अप्रमाद (४) अकषाय (५) अयोग आरोह क्रम __ इनका आरोह-क्रम यही है । सम्यग् दर्शन के बिना विरति नही, विरति के बिना अप्रमाद नहीं, अप्रमाद के बिना अपाय नहीं, अकषाय के बिना प्रयोग नहीं।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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