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________________ [५३ जैन दर्शन में आचार मीमांसा संज्वलन माया-जैसे छिलते वांस की छाल (स्वल्पतम वक्र) संज्वलन लोभ-जैसे हल्दी का रंग ( तत्काल उड़ने वाला रंग) इनके उदयकाल में चारित्र-विकारक परमाणुओ का अस्तित्व निर्मल नहीं होता। यह प्रारम्भ में प्रमाद और वाद में कपाय-अानव की भूमिका है। यह वीतराग-चारित्र की वाधक है। इसके अधिकारी सराग-संयमी होते हैं। योगान्नव शैलेशी दशा ( असंप्रज्ञात समाधि ) का बाधक है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और अशुभ योग से पाप कर्म का वन्ध होता है। अानव के प्रथम चार रूप अान्तरिक टोप हैं। उनके द्वारा पाप कर्म का सतत बन्ध होता है। योग आस्रव प्रवृत्त्यात्मक है। वह अशुभ और शुभ दोनो प्रकार का होता है। ये दोनो प्रवृत्तियां एक साथ नहीं होती। शुभ-प्रवृत्ति से शुभ कर्म और अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ कर्म का वन्ध होता है । __ पात्रब के द्वारा शुभ-अशुभ कर्म का वन्ध उसका पुण्य-पाप के रूप में उदय, उदय से फिर पानव, उससे फिर वन्ध और उदय-यह संसार चक्र है। साधक तत्त्व-संवर जितने अानव हैं उतने ही संवर हैं। आस्रव के पाँच विमाग किये हैं, इसलिए संवर के भी पॉच विभाग किये हैं : (१) सम्यक्त्व (२) विरति (३) अप्रमाद (४) अकपाय (५) अयोग। चतुर्थगुणस्थानी अविरत सम्यग दृष्टि के मिथ्यात्व श्रास्रव नहीं होता। पष्ठगुणस्थानी-प्रमत्त संयति के अविरति आस्रव नहीं होता। सप्तमगुणस्थानी अप्रमत्त संयति के प्रमाद बास्रव नही होता। वीतराग के कपाय आस्रव नहीं होता। यह अनास्लव (सर्व-संवर) की दशा है। इसी में शेप सब कर्मों की निर्जरा होती है। सब कर्मों की निर्जरा ही मोक्ष है। निर्जरा निर्जरा का अर्थ है कर्म-क्षय और उससे होने वाली आत्म-स्वरूप की उपलब्धि । निर्जरा का हेतु तप है। तप के वारह प्रकार हैं ३७ । इसलिए निर्जरा के बारह प्रकार होते हैं। जैसे संवर आस्रव का प्रतिपक्ष है वैसे ही निर्जरा बंध का प्रतिपक्ष है। श्रास्रव का संवर और बन्ध की निर्जरा होती है। उससे
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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