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________________ जैन दर्शन में आचार मीमासा [४५ जीव के सहयोग के कारण पुद्गल की ज्ञानात्मक प्रवृत्तियां होती हैं। सब जीव चेतना युक्त होते हैं। किन्तु चेतना की प्रवृत्ति उन्हीं की दीख पड़ती है जो शरीर सहित होते हैं। सव पुद्गल रूप सहित है फिर भी चमंचन द्वारा वे ही दृश्य हैं, जो जीव युक्त और मुक्त-शरीर है। पुद्गल दो प्रकार के होते हैंजीव-सहित और जीव-रहित । शस्त्र-अहत मजीव और शस्त्र-हत निर्जीव होते हैं। जीव और स्थूल शरीर के वियोग के निमित्त शस्त्र कहलाते हैं। शस्त्र के द्वारा जीव शरीर से अलग होते हैं। जीव के चले जाने पर जो शरीर या शरीर के पुद्गल-स्कन्ध होते है-चे जीवमुक्त शरीर कहलाते हैं २४॥ खनिज पदार्थ-सब धातुएं पृथ्वीकायिक जीवो के शरीर है। पानी अपकायिक जीवो का शरीर है। अग्नि तैजस कायिक, हवा वायुकाविक, तृण-लता-वृक्ष आदि वनस्पति कायिक, और शेष सब त्रस कायिक जीवों के शरीर है। ____ जीव और शरीर का सम्बन्ध अनादि-प्रवाह वाला है। वह जब तक नहीं टूटता तव तक पुदगल जीव पर और जीव पुद्गल पर अपना-अपना प्रभाव डालते रहते हैं। वस्तुवृत्त्या जीव पर प्रभाव डालने वाला कार्मण शरीर है। यह जीव के विकारी परिवर्तन का अान्तरिक कारण है। इसे वाह्य-स्थितियां प्रभावित करती हैं। कार्मण-शरीर कार्मण-वर्गणा से बनता है। ये वर्गणाएं सबसे अधिक सूक्ष्म होती हैं। वर्गणा का अर्थ है एक जाति के पुद्गल स्कन्धो का समूह। ऐसी वर्गणाएँ असंख्य हैं। प्रत्यक्ष उपयोग की दृष्टि से वे पाठ मानी जाती हैं :१-औदारिक वर्गणा ५-कार्मण वर्गणा २-वैक्रिय वर्गणा ६- श्वासोच्छ्वास वर्गणा ३-श्राहारक ,, ७-भापा ४-तैजस् , ८-मन पहली पांच वर्गणाओं से पांच प्रकार के शरीरो का निर्माण होता है। शेप तीन वर्गणाओ से श्वास-उच्छ्वास, वाणी और मन की क्रियाएं होती है। ये वर्गणाएं समूचे लोक में व्याप्त है। जव तक इनका व्यवस्थित संगठन नही वनता, तब तक ये स्वानुकूल प्रवृत्ति के योग्य रहती है किन्तु उसे कर नहीं सकतीं। इनका व्यवस्थित संगठन करने वाले प्राणी हैं। प्राणी अनादिकाल
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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