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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा ।३६ एक अङ्ग है। प्रमाण दो हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष । तर्क-गम्य पदार्थो की जानकारी के लिए जो अनुमान है, वह परोक्ष के पांच रूपो मे से एक है। पूर्व-धारणा की वधार्थ-स्मृति आती है, उसे तर्क द्वारा साधनो की आवश्यकता नहीं होती। वह अपने आप सत्य है-प्रमाण है। यथार्थ पहिचान प्रत्यभिज्ञा के लिए भी यही बात है। मैं जब अपने पूर्व परिचित व्यक्ति को साक्षात् पाता हूँ तब मुझे उसे जानने के लिए तर्क आवश्यक नहीं होता। मैं जिसके यथार्थ ज्ञान और यथार्थ-वाणी का अनुभव कर चुका, उसकी वाणी को प्रमाण मानते समय मुझे हेतु नही ढूंढना पड़ेगा। यथार्थ जानने वाला भी कभी और कहीं भूल कर सकता है यथार्थ कहने वाला भी कभी और कहीं असत्य बोल सकता है-इस संभावना से यदि मैं उसकी प्रत्येक वाणी को तर्क की कसौटी पर कसे विना प्रमाण न मानू तो वह मेरी भूल होगी। मेरा विश्वासी मुझे ठगना चाहे, वहाँ मेरे लिए वह प्रमाणाभास होगा। किन्तु तर्क का सहारा लिए विना कही भी वह मेरे लिए प्रमाण न वने, यह कैसे माना जाए ? यदि यह न हो तो जगत् का अधिकांश व्यवहार ही न चले ? व्यवहार में जहाँ व्यावहारिक प्राप्त की स्थिति है, वहाँ परमार्थ में पारमार्थिक प्राप्त-वीतराग की। किन्तु तर्क से आगे विश्वास है अवश्य । अॉख से जो मैं देखता हूँ। कान से जो सुनता हूँ, उसके लिए मुझे तर्क नहीं चाहिए। सत्य अॉख और कान से परे भी है। वहाँ तर्क की पहुँच ही नहीं है । तक का क्षेत्र केवल कार्य-कारण की नियम वद्धता, दो वस्तुओ का निश्चित साहचर्य । एक के वाद दूसरे के आने का नियम और व्याप्य में व्यापक के रहने का नियम है । एक शब्द में व्याप्ति है । वह सार्वदिक और सार्वत्रिक होती है। वह अनेक काल और अनेक देश के अनेक व्यक्तियो के समान अनुभव द्वारा सृष्ट नियम है। इसलिए उसे प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाण-परम्परा से ऊँचा या एकाधिकार स्थान नही दिया जा सकता अतयं आज्ञा-ग्राह्य या आगम-गम्य होता है। निरूपण या कथन की विधि नित्पण वस्तु का होता है। वस्तु के जितने रूप होते हैं उतने ही रूप
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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