SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [१५ ज्ञान-शक्ति आत्मा की अनावरण-दशा का परिणाम है । इसलिए वह सिर्फ पदार्थाभिमुखी या ज्ञेयाभिमुखी वृत्ति है। दर्शन-शक्ति अनावरण और अमोह दोनो का संयुक्त परिणाम है। इसलिए वह साध्याभिमुखी या आत्माभिमुखी वृत्ति है। दर्शन के प्रकार एकविध दर्शन___सामान्यवृत्त्या दर्शन एक है ११। आत्मा का जो तत्त्व श्रद्धात्मक परिणाम है, वह दर्शन (इष्टि, रुचि, अभिप्रीति, श्रद्धा ) है। उपाधि-भेद से वह अनेक प्रकार का होता है। फिर भी सव में श्रद्धा की व्याप्ति समान होती है। इसलिए निरुपाधिक वृत्ति या श्रद्धा की अपेक्षा वह एक है। एक समय में एक व्यक्ति को एक ही कोटी की श्रद्धा होती है । इस दृष्टि से भी वह एक है। निविध दर्शन : श्रद्धा का सामान्य रूप एक है-यह अभेद-बुद्धि है, श्रद्धा का सामान्य निरूपण है। व्यवहार जगत् में वह एक नहीं है। वह सही भी होती है और गलत भी। इसलिए वह द्विरुप है-(१) सम्यग-दर्शन (२) मिथ्यादर्शन १। ये दोनो भेद तत्त्वोपाधिक हैं। श्रद्धा अपने आपमें सत्य या असत्य नहीं होती। तत्त्व भी अपने आपमें सत्य-असत्य का विकल्प नही रखता। तत्त्व और श्रद्धा का सम्बन्ध होता है तब 'तत्व श्रद्धा' ऐसा प्रयोग बनता है । तब यह विकल्प खड़ा होता है-श्रद्धा सत्य है या असत्य ? यही श्रद्धा की द्विरूपता का आधार है। तत्त्व की यथार्थता का दर्शन या दृष्टि है अथवा तत्त्व की यथार्थता में जो रुचि या विश्वास है, वह श्रद्धा सम्यक है। तत्त्व का अयथार्थ दर्शन, अयथार्थ रुचि या प्रतीति है, वह श्रद्धा मिथ्या है। तत्त्व-दर्शन का तीसरा प्रकार यथार्थता और अयथार्थता के बीच का होता है । तत्त्व का अमुक स्वरूप यथार्थ है और अमुक नही-ऐसी दोलायमान वृत्ति वाली श्रद्धा सम्यग् मिथ्या है। इसमें यथार्थता और अयथार्थता दोनो का स्पर्श होता है, किन्तु निर्णय किसी का भी नही जमता। इसलिए यह मिश्र है । इस प्रकार तत्त्वोपाधिकता से श्रद्धा के तीन रूप बनते हैं-(१) सम्यक्-दर्शन ( सम्यक्त्व ) (२) मिथ्या-दर्शन ) ( मिथ्यात्व) (३) सम्यक-मिथ्या-दर्शन ( सम्यक्त्वमिथ्यात्व)।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy