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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [१५३ ७ एवम्भूत-नय एक ही शब्द सदा एक वस्तु की अभिव्यक्ति नहीं करता। क्रिया-कालीन वस्तु का वाचक शब्द क्रिया-काल-शुन्य वस्तु को अभिव्यक्त नही कर सकता। दुर्नयः निरपेक्ष-दृष्टियाँ १. व्यक्ति और समुदाय दोनो सर्वथा भिन्न ही है- यह वस्तु-स्थिति का तिरस्कार है । वह ऐकान्तिक पार्थक्यवादी नीति (नैगम-नयाभास) है। २. समुदाय ही सत्य है-यह व्यक्ति का तिरस्कार है। यह ऐकान्तिक समुदायवादी नीति (संग्रह नयाभास ) है। ३. व्यक्ति ही सत्य है-यह समुदाय का तिरस्कार है। यह ऐकान्तिकव्यक्तिवादी नीति ( व्यवहार-नयाभास ) है । ४. वर्तमान ही सत्य है-यह अतीत और भविष्य, अपरिवर्तन या एकता का तिरस्कार है । यह ऐकान्तिक परिवर्तनवादी नीति (पर्यायार्थिक-नयाभास) है। ५. लिङ्ग-भेद ही सत्य है-यह भी एकता का तिरस्कार है। ६. उत्पत्ति-भेद ही सत्य है-यह भी एकता का तिरस्कार है। ७. क्रियाकाल ही सत्य है-यह भी एकता का तिरस्कार है निरपेक्ष दृष्टि का त्याग ही समाज को शान्ति की ओर अग्रसर कर सकता है। स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं विना सकलाः क्रियाः। लोकद्वितयभाविन्यो नैव साङ्गत्यमासते ॥ जिसकी शरण लिए बिना लौकिक और लोकोत्तर दोनो प्रकार की क्रियाएं समञ्जस ( संगत ) नहीं होती, उस स्याद्वाद को नमस्कार है। जेन विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा ण णिघडइ । तस्स मुवणेकगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स ॥ जिसके विना लोक-व्यवहार भी संगत नही होता, उस जगद्गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार है। उत्पन्न दधिभावेन, नष्टं दुग्धतया पयः। गोरसत्वात् स्थिरं जानन् , स्याद्वादद्विड् जनोऽपि कः॥
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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