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________________ १०८] जैन दर्शन में आचार मीमांसा वानप्रस्थ सहित तीन और पीछे संन्यास सहित चार आश्रमो को जीवन में स्थान में दिया। निवर्तक-धर्म की अनेक संस्थात्रो के बढ़ते हुए जन-व्यापी प्रभाव के कारण अन्त में तो यहाँ तक प्रवर्तक धर्मानुयायी ब्राह्मणों ने विधान मान लिया कि गृहस्थाश्रम के वाद जैसे संन्यास न्याय प्राप्त है, वैसे ही अगर तीत्र वैराग्य हो तो गृहस्थाश्रम विना किए भी सीधे ब्रह्मचर्याश्रम से प्रव्रज्यामार्ग न्याय-प्राप्त है। इस तरह जो निवर्त्तक धर्म का जीवन मे समन्वय स्थिर हुआ, उसका फल हम दार्शनिक साहित्य और प्रजा-जीवन में आज भी देखते हैं । नोक्ष की मान्यता के बाद गृह-त्याग का सिद्धान्त स्थिर हो गया । वैदिक ऋषियों ने आश्रम-पद्धति से जो संन्यास की व्यवस्था की, वह भी यान्त्रिक होने के कारण निर्विकल्प न रह सकी। संन्यास का मूल अन्तःकरण कां वैराग्य है। वह सव को आये, या अमुक अवस्था के ही वाद आये, पहले न आये, ऐना विधान नहीं किया जा सकता। संन्यास अात्मिक-विधान है, यान्त्रिक स्थिति उसे जकड़ नहीं सकती। श्रमण-परम्परा ने दो ही विकल्प माने-अगार धर्म और अणगार धर्म-"अगार-धम्म अणगार धम्मं च ७८ । श्रमण-परम्परा गृहस्थ को नीच और श्रमण को उच्च मानती है, यह निरपेक्ष नहीं है। साधना के क्षेत्र में नीच-ऊंच का विकल्प नहीं है। वहाँ संयम ही सब कुछ है। महावीर के शब्दों में-'कई गृह त्यागी भिक्षुओं की अपेक्षा कुछ गृहस्थों का संयम प्रधान है और उनकी अपेक्षा साधनाशील संयमी मुनियों का संयम प्रधान है। श्रेष्ठता व्यक्ति नहीं, संयम है । संयम और तप का अनुशीलन करने वाले, शान्त रहने वाले भिक्षु और गृहस्थ-दोनों का अगला जीवन भी तेजोमय बनता है । समता-धर्म को पालने वाला, श्रद्धाशील और शिक्षा-सम्पन्न गृहस्थ घर में रहता हुआ भी मौत के बाद स्वर्ग में जाता है८१ ॥ किन्तु संयम का चरम-विकास मुनि-जीवन में ही हो सकता है। निर्वाणलाम मुनि को ही हो सकता है-यह श्रमण-परम्परा का ध्रुव अभिमत है।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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