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________________ १०६] जैन दर्शन में आचार मीमांसा "सर्व एव हि जैनानां, प्रमाण लौकिको विधिः । यत्र सम्यकत्व हानिन, यत्र न व्रतदूषणम् ।" श्रमण-परम्परा ने धर्म को लोकिक-पक्ष से अलग रखना ही श्रेय समझा। धर्म लोकोत्तर वस्तु है । वह शाश्वत सत्य है । वह द्विरूप नही हो सकता। लौकिक विधियाँ भौगोलिक और सामयिक विविधताओ के कारण अनेक रूप होती हैं और उनके रूप बदलते ही रहते हैं। श्री रवीन्द्रनाथ ने 'धर्म और समाज' में लिखा है कि हिन्दू धर्म ने समाज और धर्म को एक-मेक कर दिया, इससे रूढ़िवाद को बहुत प्रश्रय मिला है धर्म शब्द के बहु-अर्थक प्रयोग से भी बहुत व्यामोह फैला है। धर्म-शब्द के प्रयोग पर ही लोग उलझ बैठे। शाश्वत-सत्य और तत्कालीन अपेक्षाओ का विवेक न कर सके। इसीलिए समय-समय पर होने वाले मनीषियो को उनका भेद समझाने का प्रयत्न करना पड़ा । लोकमान्य तिलक के शब्दो में-"महाभारत में धर्म शब्द अनेक स्थानी पर आया है और जिस स्थान में कहा गया है कि "किसी को कोई काम करना धर्म संगत है उस स्थान में धर्म-शब्द से कर्तव्य-शास्त्र अथवा तत्कालीन सामाज-व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया जाता है तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण के मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात् शान्ति पूर्वक उत्तरार्ध में 'मोक्ष-धर्म' इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है ७४ । __ श्रमण-परम्परा इस विषय में अधिक सतर्क रही है। उसने लोकोत्तर-धर्म के साथ लौकिक विधियों को जोड़ा नही। इसीलिए वह बराबर लोकोत्तर पक्ष की सुरक्षा करने में सफल रही है और इसी आधार पर वह व्यापक बन सकी है। यदि श्रमण-परम्परा में भी वैदिको की भॉति जाति और संस्कारो का आग्रह होता तो करोड़ो चीनी और जापानी कभी भी श्रमण-परम्परा का अनुगमन नहीं करते। आज जो करोड़ो चीनी और जापानी श्रमण-परम्परा के अनुयायी हैं, वे इसीलिए हैं कि वे अपने संस्कारो और सामाजिक विचारो में स्वतंत्र रहते हुए भी श्रमण-परम्परा के लोकोत्तर पक्ष का अनुसरण कर सकते हैं।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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