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________________ कदम्ब एवं गंगवंशी लेखों से पता चलता है कि समचे दिगम्बर संघ को निम्रन्थ महाश्रमण संघ कहा जाता था। कालान्तर में जब शिथिलाचार बढ़ने लगा, तो उसकी विशुद्धि के लिए नये-नये आन्दोलन प्रारम्भ हो गये। भट्टारक युगीन संघ तो इस शिथिलाचार का बहुत अधिक शिकार हुमा । फलस्वरूप विभिन्न संघ-सम्प्रदाय बन गये । इन संघ-सम्प्रदायों में मतभेद का विशेष बाधार आचार-प्रक्रिया थी। विचारों में भेद अधिक नहीं आ पाया । वनों में निवास करनेवाले मुनि नगर की ओर आने लगे, और मन्दिरों और चैत्यों में निवास करने लगे। लगभग१० वीं शताब्दी तक यह प्रवृत्ति अधिक दृढ़ हो गई। विशुद्ध आचारवान् भिक्षुओं ने इसका विरोध किया और शिथिलाचारी साधुओं की भर्त्सना कर उन्हें जैनाभासी और मिथ्यात्वी जैसे सम्बोधनों से सम्बोधित किया। इन सभी कारणों से दिगम्बर सम्प्रदाय में अनेक संघों की स्थापना हो गई । उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । १. मूल संघ: शिथिलाचारी साधुओं के विरोध में विशुद्धतावादी साधुओं ने जिस आन्दोलन को चलाया उसे मूल संघ कहा गया है । मूल संघ के स्थापकों ने यह नाम देकर अपना सीधा सम्बन्ध महावीर से बताने का प्रयत्न किया और शेष संघ को अमूल बता दिया। इस संघ की उत्पत्ति का स्थान और समय अभी तक निश्चित नहीं हो पाया पर यह निश्चित है कि इस संघ का विशेष सम्बन्ध कुन्दकुन्द से रहा है । साधारणतः कुन्दकुन्द का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना गया है । कालान्तर में मूल संघ जैसे ही काष्ठा-द्राविड बादि और संघ भी स्थापित हुए । इन सभी संघों पर निग्रन्थ और यापनीय संघों का प्रभाव अधिक है। आचार्य इन्द्रनन्दि (११ वीं शताब्दी) ने मूल संघ का परिचय देते हुए लिखा है कि पुण्डवर्धनपुर (बोगरा, बंगाल) के निवासी आचार्य अहंवली (लगभग प्रथम शती ई.) पांच वर्ष के अन्त में सौ योजन में रहनेवाले मुनियों को एकत्र कर युगप्रतिक्रमण किया करते थे । एक बार इसी प्रकार प्रतिक्रमण के समय उन्होंने मुनियों से पूछा-"क्या सभी मुनि आ चुके ? मुनिओं से उत्तर मिला-हां, सभी मुनि आ चुके । अर्हद्वली ने उत्तर पाकर यह सोचा कि समय बदल रहा है। अब जैनधर्म का अस्तित्व गणपक्षपात के आधारपर ही रह सकेगा, उदासीन भाव से नहीं । तब उन्होंने संघ अथवा गण स्थापित किये। गुहाथों से आनेवाले मुनियों को "नन्दि" और "वीर" संज्ञा दी, अशोक वाटिका से मानेवालों को "देव" और "अपराजित" कहा, पञ्चस्तूप से आनेवालों को "सेन" या "भद्र" नाम दिया, शाल्मलिवृक्ष से मानेकानों को "गुणधर" और
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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