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________________ टोडरमलजी ने भतृहरि के 'वैराग्य शतक' से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है एको रागिषु राजते प्रियतमा देहार्द्धधारी हरो, नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासङ्गो न यस्मात्परः । दुरिस्मरवाणपन्नगविषव्यासक्तमुग्धां जनः, शेषः कामविडवितो हि विषयान् भोक्तु न मोक्तुं क्षमः ।। रागियों में महादेव और वीतरागियों में जिनदेव की बात कहने वाले इस स्सोक को बाण के संस्करणों में या तो रखा ही नहीं या कुछ संस्करणों में रखा भी गया तो वह कुछ परिवर्तन के साथ रखा गया। एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्धहारी हरो, नीरागेष्वपि यो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्परः । दुर्वारस्मरवाणपन्नगविषज्वालावलीढो जनः शेषः कामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुं च मोखं क्षमः ॥' इसी प्रकार मूल 'अमरकोष' में बुद्ध के बाद जिनके भी नाम विषं गये है, वर्तमान संस्करणों में वह भाग लुप्त हो गया। पं. मिलापचन्द कटारियाजी में उस लुप्त भाग को इस प्रकार खोज निकाला सर्वज्ञो वीतरागोर्हन केवली तीर्थकृज्जिनः । स्याद्वादवादी निह्नीकः निम्रन्याधिप इत्यपि ।।। इस प्रकार के अनेक जनेतर उद्धरण प्राचीन जैन साहित्य में मिलते हैं जिनसे जैनधर्म की प्राचीनता और लोकप्रियता का पता चलता है पर धीरेधीरे बैदिक विदानों ने अपनी संकीर्णतावश उनको अलग कर दिया अथवा तोड़-मोड़कर उपस्थित किया । टोडरमलजी ने 'भमानी सहस्त्रनाम', 'गणेश पुराण', 'प्रभास पुराण', 'नगर पुराण' आदि ग्रन्यों से भी अनेक उवरण दिये र प्रायः सब मिलते नहीं । शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में यह व्यामोह उचितं नहीं कहा जा सकता। समूचे जैन साहित्य से इस प्रकार के जबरण एकत्रित कर उनकी मीमांसा की जानी अपेक्षित है। साथ ही यह भी दृष्टम्म है कि ऋग्वेद बादि में उपलब्ध तथाकथित उद्धरण कहाँ तक जैन संस्कृति की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। १.बगारमतक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १८१८, चतुर्व संस्करण (सं.कण बास्त्री) २. बजैन साहित्य मे जैन उल्लेख बार साम्प्रदायिक की संकीर्णता से उनका कोप महावीर जयन्ती स्मारिका, १९००, १.५७-६५.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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