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________________ महावीर का यह चिन्तन आधुनिक चिन्तन के अधिक निकट दिखाई देता है। महावीर ने जनभाषा 'प्राकृत' में सारा उपदेश दिया। उसी प्राकृत भाषा ने कालान्तर में साहित्यिक भाषा का रूप ले लिया। भारतीय भाषाबों के विकास क्रम में इस प्राकृत भाषा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । भाषाविज्ञान के लिए तो यह एक अमूल्य देन है । प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य भारतीय इतिहास और संस्कृति के नये मानदण्ड उपस्थित करने के लिए एक समूत्र भण्डार है। ___एक ओर जहाँ महावीर ने आचार क्षेत्र में क्रान्तिकारी विचार प्रस्तुत किये वही दूसरी ओर विचार क्षेत्र में भी उन्होंने अभूतपूर्व योगदान दिया । उनका कहना था कि एक सर्वसाधारण व्यक्ति किसी भी वस्तु या व्यक्ति को सर्वांशतः नही जान सकता। विभिन्न संघर्षों का कारण एकांशिक प्रतीति और 'उसी प्रतीति के लिए कवाग्रही बने रहना है। इसलिए 'ही' का दुराग्रह छोड़कर 'भी' का कथन किया जाना चाहिए। दूसरे की दृष्टि को समझना हमारा कर्तव्य है। यही उसके प्रति हमारा आदर है। प्रत्येक दृष्टिकोण में कुछ न कुछ सत्यांश रहता है जिसे उपेक्षित करना सत्य का अपमान होगा। विश्वशान्ति के लिए यह सिद्धान्त एक अमोघ अस्त्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । महावीर ने इस सिद्धान्त को स्याद्वाद और 'अनेकान्तवाद' नाम दिया है। 'स्याद्वाद' वचन की दूषित प्रणाली को दूर करता है और 'अनेकान्तवाद' चिन्तन की। सर्वधर्म समन्वय के क्षेत्र में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इसी दृष्टि को आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है कि व्यक्ति को किसी अर्थ विशेष से आकृष्ट न होकर निष्पक्षतापूर्वक विचार करना चाहिए । आग्रही वत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्ति यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे और भी स्पष्ट करते हुए समन्वयवाद पर विचार किया। उन्होंने कहा कि मैं किसी तीर्थकर या विचारक के प्रति पक्षपाती नहीं है, परन्तु जिसका वचन तर्कसिद्ध प्रतीत होगा उसी को मैं स्वीकार करूंगा। पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष: कपिलादिषु । युक्तिमवचनं यस्य तस्य कार्यः प्रतिग्रहः ॥ इस प्रकार भ. महावीर ने समाज को अभ्युनत करने के लिए सभी प्रकार के प्रयत्न किए। उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अहिंसा का महत्त्व प्रदर्शित करके मानवता के संरक्षण में अधिकाधिक योगदान दिया। यह उनके गहन चिन्तन और समीक्षण का ही परिणाम था। इसपर समूचा जैन साहित्य बाधारित है।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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