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________________ जिक तथा राजनीतिक आचार संहिताओं से भ्रष्ट वातावरण के दूषित कल्पनाजाल को उसने अपनी सूक्ष्मदृष्टि और गहन अनुभूति के माध्यम से निर्मूल 'करने को यथाशक्य प्रयत्न किया । विश्व के अन्य कोनों के समान हमारी भारत वसुन्धरा भी महात्मा बुद्ध, मक्खलि गोसाल, संजय वेलट्ठियुत आदि श्रमण दार्शनिकों तथा असित देवल, द्वैपायन, पाराशर, नमि, विदेही रामगुप्त, बाहुक, नारायण आदि वैदिक दार्शनिकों को अपनी सुखद अंक में संजोये हुई थी । महावीर ने इन सभी चिन्तकों की भूमिका पर खड़े होकर समाज और धर्म की जर्जरित रुग्ण नाड़ी की हलन चलन का लेखा-जोखा किया और भिषगाचार्य के सार्थक संयोजन ने उन्हें युगचेता महावीर बना दिया । महावीर का जन्म ई. पू. ५९९, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि के अन्तिम प्रहर में हुआ । उनके पिता सिद्धार्थ नाथवंश के थे और कुण्डपुर arrar वैशाली के प्रधान थे तथा माता त्रिशला लिच्छविवंशीय राजा चेटक की पुत्री थीं। माता पिता के राजवंशों का परिवेश महावीर के व्यक्तित्व के विकास के लिए पर्याप्त था । लगभग तीस वर्ष की अवस्था में महावीर ने महाभिनिष्क्रमण किया । कठोर तपश्चर्या करते हुए उन्होंने आत्मसधना की । लगभग बयालीस वर्ष की अवस्था में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और आगं बहत्तर वर्ष की अवस्था तक वे अपना धर्म प्रचार करते हुए देशाटन करते रहे । उनका निर्वाण ५२७ ई. पू. में पावा (गोरखपुर) मे कार्तिक शुक्ला रात्रि अन्तिम प्रहर में हुआ । महावीर के निर्वाण काल और के विषय में मतभेद है पर अब साधारणत: विद्वान उपयुक्त तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं, ' तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के ही उपलक्ष्य में दीपावली मनाई जाती है । अमावस्या की निर्वाण स्थली पार्श्वनाथ के 'चातुर्यामधर्म' के चतुर्थव्रत में मैथुन और परिग्रह दोनों का अन्तर्भावथा । कालान्तर में शिथिलाचार बढ़ता गया और मैथुन की ओर प्रवृत्ति बढ़ने लगी । इस शिथिलाचार को देखकर महावीर का हृदय रो उठा और उन्होंने चतुर्थव्रत को ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन दो भागों में विभक्त करके उसे 'पंचमहाव्रत नाम दे दिया । महावीर का यह चिन्तन जनसमाज को चिकर और हितकर सिद्ध हुआ । फलत: जैन धर्म की ओर उसका आकर्षण 'और बढ़ने लगा । १. विस्तार के लिए देखिये लेखक की पुस्तक, Jainism in Buddhist Literature, जालोक प्रकाशन, नागपुर, १९७३, प्रथम अध्याय ।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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