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________________ ४०७ ३. मोहजन्य कार्य करना। इसके कारण जीव हेयोपादेय का ज्ञान नहीं कर पाता। राग-द्वेषादि के कारणों से ही जीव की बुद्धि तात्विक दर्शन और आचरण की ओर नहीं जाती। क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि कषाय और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा आदि मनोविकार सूचक नोकषाय मोहके कारण ही होते हैं। इसे मोहनीय कर्म कहा गया है। यह कर्म प्रबलतम माना गया है। ४. सत्कार्यों में विघ्न उपस्थित करना। दान, लाभ, भोग, उपभोग आदि ऐसे ही क्षेत्र हैं जिनमें व्यक्ति दूसरों के लिए ये कार्य नहीं करने देता। इसे अन्तरायकर्म कहा गया है। ये चारों कार्य जीव के ज्ञानादि गुणों का घात करते है इसलिये धार्मिक परिभाषा में इन्हें 'घातिया कर्म' कहा गया है। रागद्वेषादि भावों से हमारा स्वास्थ्य, शरीर तथा सामाजिक मान-सम्मान प्रभावित होता है और साथ ही उनका सुख रूप अनुभव होता है। इनको क्रमशः आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायकर्म कहा गया है। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पंशून्य, पर-परिवाद, रति, अरति, माया, मषा, आदि पाप के कारण (आश्रव) है। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से भी पापमयी क्रियायें होती है। संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ, घृत, कारित, अनुमोदन आदि को भी आश्रव हेतु कहा गया है। इन आश्रव हेतुओं से मानसिक विक्षेप होता है और जीवन अशान्त बन जाता है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर का मद भी ऐसा ही है जिसमें व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता और दूसरे की निम्नता प्रगट करता है। इन समस्त दुर्भावों और पापक्रियाओं से दूर रहने पर आत्मा की विशुद्ध अवस्था और सरलता प्रगट हो जाती है। सुख और सफलताका यह प्रथम साधन है। पर्युषण, और क्षमावाणी पर्व जैसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पर्वो में जैनधर्मावलंबी साधक आत्मसाधना करके इस साधन को उज्वलित करने का प्रयत्न करता है। विकास का दूसरा सोपान सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना है। स्वाध्याय उसकी आधार शिला है। बहुश्रुतत्व होने से साधक का चिन्तन हेयोपादेय की ओर विशेष रूप से झुकता है, पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है और निरासक्त होकर समन्वयता की ओर बढ़ता है। पदार्थ अनेकान्तात्मक है और हमारी क्षमता उसे पूरी तरह समझने की है नहीं। अतः दूसरे का दृष्टिकोण समादरणीय है। इस विचारधारा से कदाग्रह की वृत्ति दूर होती है और सामाजिक संघर्ष कम हो जाते हैं। समाज अथवा व्यक्तिगत आचार संहिता को सम्यक् चारित्र कहा जाता है । व्यक्ति का सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वह हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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