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________________ ૮ प्रदीप' (पृ. २८६) में भी पार्श्वनाथ और अरिष्टनेमि को उद्धृत किया गया है । अधिक सम्भव है कि महात्मा बुद्ध स्वयं बोधिप्राप्ति काल में पार्श्वनाथ परम्परा में कुछ समय के लिए दीक्षित रहे हों। यह उनकी साधना से स्पष्ट है ।" पार्श्वनाथ का 'चातुर्याम धर्म' इतिहास में सर्वमान्य है । सर्वप्रथम बौद्ध साहित्य में उसका उल्लेख हुआ है । सामञ्ञफलसुत्त में कहा है कि अजातशत्रु श्रामण्य फल के प्रश्न को लेकर तत्कालीन छह तीर्थंकरों के पास गया । इसी प्रसंग में निगष्ठ नातपुत्त महावीर को "चातुर्यामसंवर संवुत्तो" बताया है । ये चातुर्याम इस प्रकार हैं १) जल का व्यवहार न करना ताकि जीवों का घात न हो । २) सभी पापों को दूर करना । ३) पापों को छोड़ने से घुत पाप होता है, और ४) पापों के घुल जाने से लाभ होता है । पार्श्वनाथ के चातुर्याम परम्परा का यह उल्लेख भ्रान्तिकारी है । वस्तुतः यह परम्परा निगण्ठनातपुत्त से सम्बद्ध न होकर उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ से थी । पार्श्वनाथ ने जिन चातुर्याम धर्मों का उपदेश दिया था वे इस प्रकार हैं १) सर्व प्राणातिपात विरमण, २) सर्व मृषावाद विरमण, ३) सर्व अदत्तादान विरमण, ४) सर्व बहिस्थादान विरमण । यह चातुर्याम परम्परा उत्तराध्ययनादि आगम ग्रन्थों में वर्णित है । निग्गण्ठ नातपुत्त से उसका सम्बन्ध जोड़ने का तात्पर्य यह हो सकता है कि त्रिपिटक के संग्राहक इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि चातुर्याम के उपदेशक तो पार्श्वनाथ थे, महावीर नहीं । यह भी सम्भव है कि महावीर अपनी तपस्या के पूर्वकाल में चातुर्याम परम्परा के अनुयायी रहे हों, और बाद में समाजगत आचार शैथिल्य के कारणों का विश्लेषण करने पर उन्होंने उसे 'पञ्चयाम' के रूप में परिणित कर दिया हो । दूसरी बात, निग्गण्ठनातपुत के नाम पर जिन चातुर्याम व्रतों का वर्णन किया गया है, वह भी सही नहीं है । बौद्ध साहित्य के ही अन्यतम ग्रन्थ 'अंगुत्तरनिकाय' (भाग ३, पृ. २७६ ५. मज्झिमनिकाय (रोमन) भाग-१, पृ. २३८. भाग-२, पृ. ७७,
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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