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________________ ३९५ २. जगत और जीवन के सम्बन्धों का परिज्ञान ३. आचार, दर्शन और विज्ञान के त्रिभुज की उपलब्धि ४. प्रसुप्त शक्तियों का उद्बोधन ५. सहिष्णुता की प्राप्ति ६. कलात्मक जीवन यापन करने की प्रेरणा की प्राप्ति विभज्जवादात्मक दृष्टिकोण द्वारा भावात्मक अहिसा की प्राप्ति ७. ८. व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित अवसरों की प्राप्ति ९. कर्त्तव्यपालन के प्रति जागरूकता १०. शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का उन्नयन ११. विवेक दृष्टि की प्राप्ति. शिक्षार्थी : शिक्षार्थी की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी स्वयं की वृत्ति किस प्रकार की है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि उसके साधन पवित्र हो और शिष्य विनीत हो । विनम्रता के नीचे मानवता का निवास होता है । विनीत शिष्य सदाचरण, ऋजुता, मार्दव, लघुता, भक्ति आदि आत्मसाधक गुणों से परिनिष्टित रहता है । वह सभी का मित्र बनकर रहता है । अहंकार से दूर रहता है । गुरुजनों का सम्मान करता है । तीर्थकरों, बुद्धों एवं आचार्यों की आज्ञा का पालन करता है और गुणों का अनुमोदक रहता है ।" सत्य तो यह है कि विनय विहीन व्यक्ति की समूची शिक्षा निरर्थक हुआ करती है । शिक्षा का फल ही विनय है और विनय का फल समस्त कल्याण है । विणण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा सव्वा णित्थया । विणओ सिक्खाए फलं, विणयफलं सव्वकल्लाणं ।। बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों तथा उपासक और उपासिकाओं के विनय का अध्ययन करने से यह पता चलता है कि उनके लिए भी विनय एक आवश्यक गुण है । शील, समाधि और प्रज्ञा के क्षेत्र में साधक जैसे जैसे आगे बढ़ता जाता है, उसकी विनम्रता भी उतनी ही गंभीर होती जाती है । काम, क्रोध, निद्रा, औदार्य और पश्चात्ताप तथा विचिकित्सा ( शंका) इन पञ्च नीवरणों को दूर १. मूलाचार, ५.२१३-२१४ २. वही, ५.२११
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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