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________________ अष्टम परिवर्त जैन समाज व्यवस्था १. वर्ग व्यवस्था व्यवस्था अवस्थाजन्य होती है । जहाँ अवस्थायें होती है वहाँ सापेक्षता आवश्यक होती है। यदि सापेक्षता न हो तो शान्तिभंग होना एक अनिवार्य तथ्य है । परस्पर सहयोग समन्वय, संयम, सद्भाव और एकता सापेक्षता के प्रमुख अंग हैं। समाज की अभ्युन्नति इसी प्रकारकी सापेक्षता पर अवलम्बित है। शासन व्यवस्था भी इसी पर टिकी हुई है। वणे व्यवस्था : जैनधर्म सम्मत समाज व्यवस्था आस्मानुशासन पर केन्द्रित है। ईश्वरवाद के घेरे से हटाकर पुरुषार्थवाद, कर्मवाद और समानतावाद के आंचल में पली पुसी जैन संस्कृति और उसकी समाजव्यवस्था एक क्रान्तिकारी दर्शन लिए हुए है। बैदिक युगीन जन्मतः वर्ण व्यवस्था के विरोध में कर्मतःसमाजवादी व्यवस्था प्रस्तुत करना उसका प्रमुख सिद्धान्त है । उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा गया हैकर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही जीव शूद्र होता है। केवल शिर मुड़ाने से श्रमण, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण, जंगल में रहने से मुनि और कुशचीवर धारण करने से तपस्वी नहीं होता, अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, शान से मुनि तवा सम्यग्ज्ञान पूर्वक तप करने से तपस्वी होता है।' जातिकी कोई महिमा नहीं, महिमा है तपकी। १. न वि मुण्डियेण समणो, न बोंकारेण बम्हणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसवीरेण न तावसो।। समबाए समचो होर, बम्बचेरेष बम्पयो। नाणेण य मुणी होए, तवेणं होइ वावसो ॥ कम्मुणा बम्मुणो होइ, कम्मृणा हो चित्तबो । बास्सो कम्मुणा होइ, सुबो हवा कम्मणा ॥ उत्तराध्ययन, २५.२९-३१. २. न वीसई वाइविसेस कोई, वही, १२.३७
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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