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________________ ३४७ प्रसार होने के उल्लेख आदि तो अवश्य मिलते हैं पर कोई प्रतिमा अथवा मन्दिर आदि प्रतीक नहीं मिले। प्राचीन जैन गुफायें अवश्य मिलती हैं। चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी के बीच भी कोई जैन अवशेष नहीं मिले। मूर्तियों के इतिहास में दिगम्बर मूर्तियोंका निर्माण प्राचीनतम माना जा सकता है। गुप्तकाल की ऋषभनाथ की एक कांस्य मूर्ति अकोटा से प्राप्त हुई है पर वह खण्डित है अतः कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता। बलभी से पांच तीर्थकरों की कांस्य मूर्तियां खडगासन में मिली हैं। अकोटा में जीवंतस्वामी की भी कांस्य मूर्ति मिली है। अंबिका की भी एक प्रतिमा उपलब्ध हुई है। ये सभी प्रतिमायें लगभग छटी शताब्दी की है। कंबु-ग्रीवा शैली यहाँ अधिक लोकप्रिय दिखाई दे रही है। सातवीं शताब्दी से दशमी शताब्दी के बीच पश्चिम भारत की मूर्तिकला में कुछ विकास हुआ। ओसिया के महावीर मन्दिर की पाषाण प्रतिमायें सामान्यत: आकोट में उपलब्ध प्रतिमाओं के समान हैं पर इनमें कुछ विकसित शैली के दर्शन होते हैं। साहित्य में अनहिलपाटन आदि में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के भी अनेक उल्लेख मिलते हैं। ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच पश्चिम भारत में मूर्तिकला आदि का सर्वाधिक विकास हुआ है। चालुक्यों ने उसे संरक्षण दिया। लगभग सातवीं शताब्दी में तीर्थंकर प्रतिमा के पादपीठ पर या उसके समीप कुबेर और अंबिका के रूप में यक्ष-यक्षिणी का अंकन होता था पर दसवीं शतान्दी में हर तीर्थंकर के शासन देवी देवता निश्चित किये जा चुके। दिग्पाल की आकृतियां भी उकेरी जाने लगीं। सप्त मातृकायें भी उदृकित होती दिखती हैं। विद्यादेवियां और देवकुलिकायें भी माऊन्ट आबू के विमल वसही आदि मंदिरों में अंकित मिलती है। इतना ही नहीं. भित्तियों पर सीयंकरों के जीवन से सम्बद्ध घटनाओं को भी उकेरा जाने लगा। इस समय संगमरमर का प्रयोग अधिक किया गया। यहाँ अलंकरण की सूक्ष्मता दर्शनीय है। कुंमारिका के महावीर मन्दिर की मूर्तिकला भी उत्तम कोटि की है। इस समय की कांस्य मूर्तियों से उस काल की ढलाई कला का भी परिज्ञान होता है। लंदन के विक्टोरिया एन्ड अल्वर्ट म्यूजियम में सुरक्षित शांतिनाथ की कांस्य मूर्ति इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। पश्चिम भारत में चौदहवीं शताब्दी से मुसलिम आक्रमण अधिक हुये और फलतः कला का विकास अधिक नहीं हो पाया। फिर भी मेवाड़ के राणा
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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