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________________ यसीं शताब्दी में उत्तर भारत में मूर्तिकला का कुछ और विकास हुमा । उसमें ताग्निकता ने पूरी तरह प्रवेश कर लिया। वहांशासन देवी-देवतामों, क्षेत्रपालों, दिपालों, नवग्रहों और, विद्याधरों को भी स्थान मिल गया। पञ्च कल्याणकों के दृश्य अधिक लोकप्रिय हुए। पपासनस्य प्रतिमाओं में सिंहासन तथा अलंकृत परिकरों का अंकन किया गया। ग्यारह बारहवीं शती में इस शैली में और भी लालित्य आया। इस काल में बलुए पत्थर का उपयोग अधिक हुआ, वैसे काले और सफेद पाषाण का भी प्रयोग मिलता है। कांस्य प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ है। अलवर और जैसलमेर की ओर इन धातु-प्रतिमाओं की निर्मिति अधिक हुई है। इस काल की प्रायः सभी मूर्तियों के चेहरे चौकोर और कपोल उठे हुए से है । अलंकृति के भार से कहीं कहीं यह अंकन औपचारिकता लिये हुए-सा दिखाई देता है। चौदहवीं शताब्दी से मूर्तिकला का विकास रुक-सा गया। उत्तरभारत में इस समय की मूर्तियों में अनेक शैलियों का समन्वित रूप दिखाई देता है। कला सौन्दर्यपरक अवश्य है पर वह पूर्व शैलियों की अनुकृति मात्र है। उस में बलुआ पत्थर, संगमरमर तथा विविध धातुओंका प्रयोग हुआ है। पूर्वमारत: यहाँ उड़ीसाकी उदयगिरी और खण्डगिरि में प्राप्त सम्राट् खारवेल द्वारा प्रतिष्ठित जैन मूर्तियों का भी उल्लेख किया जा सकता है। बाद में पूर्व भारत में बंगाल और बिहार में पाल शैली का विकास हुआ। गुप्तकला के आधार पर इसे कुछ और सशक्त बनाया गया। शासन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अधिक मिलने लगीं। बलए पत्थर का उपयोग अधिक हुआ है। मायता (मदनापुर) तथा सोनामुखी (बांकुरा) से प्राप्त ऋषभदेव की प्रतिमायें उल्लेखनीय हैं। अलोरा, सिहभूमि और मानभूमि की प्रतिमानों में भी यह शैली मिलती है। देउलिया और पुरुलिया (वर्दवान) में प्राप्त सर्वतोभद्र प्रतिमायें भी दर्शनीय है। उड़ीसा में वानपुर की जन मूर्तियां भी पाल शैली पर ही आधारित हैं। पालकालीन मूर्तियों में सुरोहार (दीनाजपुर)से प्राप्त ऋषभदेव व पार्श्वनाथ की मूर्ति उल्लेखनीय है। इसी प्रकार सात देउलिया (वर्दवान) से प्राप्त ऋषभदेव, महावीर, पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ की मूर्तियां, तथा मिदनापुर, बांकुरा, अंबिकानगर, चटनगर, पाकबीरा, बलरामपुर (पुरुलिआ) आदि स्थानों से अन्य जैन मूर्तियां मिली हैं जिनमें कला-प्रदर्शन हो सका है। उड़ीसा में पोडासिगिरी (क्योहार
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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