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________________ माह रहे हैं। विशालकीति, विजयकीति, विद्यानन्द, कोटीश्वर, शुभचन्द मादि जनाचार्य इसी राजवंश के आश्रय में रहे हैं। इसी समय अनेक नगरियों में जैन कला के भव्य प्रतीक मन्दिरों का निर्माण हुआ और जैन शिक्षा केन्द्रों की स्थापना हुई। दक्षिण में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि यहां उसका प्रारम्भ महावीर अथवा उनके पूर्व काल में हुआ। और उत्तरकाल मवह अधिकाधिक लोकप्रिय होता हुआ दिखाई देता है । दिगम्बर परम्परा यहाँ अधिकमान्य रही है। कहीं-कहीं तो गांव के गांव जैनधर्म का पालन करने वाले अभी भीह। यह स्थिति प्राचीन काल में लगभग दशवीं शती तक रही। उसके बाद धीरेपर उसका अपकर्ष होता गया। वैष्णवधर्म, अलवार पन्थ तथा शैवमत के लिंगायत सम्प्रदाय की उत्पत्ति और उनके विकास ने जैनधर्म की लोकप्रियता को कम कर दिया। सम्बन्दर, तिमनावुक्करसट, अप्पर, मुक्कन्ती, तिरुमलोसई, तिरुमंग आदि वीर शिव भक्तों ने जैनधर्म और उसके अनुयायियों पर दारुण अत्याचार किये। उनका सामूहिक संहार भी किया गया। इस बीच जैन कला केन्द्र शैव अथवा वैष्णव कलाकेन्द्रों के रूप में भी परिवर्तित कर दिये गये। इस संदर्भ में पिल्लैयरपछि गौर कुनक्कुंडि (रामनाथपुरजिला), अरिट्टायट्टि (मदुरै जिला), नर्तमल्ले और कुटुमियमले (तिरुच्चिरापल्लि जिला), तिरुच्चिरापल्लि, वीरशिखामणि और कुलगुमलै (तिरुनेलवेली जिला), दलवनूर (दक्षिण अर्काट जिला), सीयमंगलम गौर मामंदूर (उत्तर अर्काट जिला) को प्रस्तुत किया जा सकता है।' मुगलकाल में जैनधर्म : मुस्लिम काल में जैनधर्म का हास होना प्रारम्भ हुआ। उन्होंने भी अनेक जैन मन्दिरों को नष्ट किया और पुस्तकालयों को जलाया तथा उन्हें मसजिदों के रूप में परिणत किया। अजमेर की बड़ी मस्जिद, दिल्ली की कुतुब मीनार आदि इस के उदाहरण है। इसके बावजूद कुछ मुसलिम राजाओं ने जैनधर्म के म सहिष्णुता का भी प्रदर्शन किया । मुहम्मद बिन तुगलक (१३२५-५१ ई.) नेप्रमाचन्द्र, जिनप्रभसूरि तथा महेन्द्रसूरि को आश्रय दिया। आचार्य सकलकी ब्रह्म श्रुतसागर, ब्रह्मनेमिदत्त, ज्ञानभूषण, शुभचन्द्र आदि भट्टारक इसी मल हुए। जिनेश्वर और भद्रेश्वर (१२०० ई.) को कथावली, प्रभाचन्द्र (२७७ ई.) का प्रभावकचरित, मेस्तुंग (१३०५ ई.) की प्रबन्धचिन्तामणि, .. जैन कला एवं स्थापत्य, भाग-२, पृ. २१२; भारतीय इतिहास : एक वृष्टि, दक्षिण मारत में जैनधर्म आदि अन्य भी दष्टव्य हैं।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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