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________________ ३३५ जैनों ने समृद्ध किया है। कांची, सित्तनवासल, मदुरा, पाटलीपुत्र आदि बीसों स्थल हैं जहाँ जैन मन्दिर और गुफायें आदि उपलब्ध हैं। दक्षिण में गंगवंश एक शक्तिशाली राजवंश था। उसके राजाओं में गंगदत्त, मानसिंह, विष्णुगुप्त, अविनीत, शिवमार और श्रीदत्त जैनधर्मानुयायी थे। उनके काल में उच्चारणाचार्य, शिवशर्म, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, कविपरमेष्ठी, वप्पदेव, पूज्यपाद, जिनसेन, गणनन्दि, वक्रग्रीव, पात्रकेसरी, बज्रनन्दि, श्रीवर्धदेव, चन्द्रसेन, जटासिंह नन्दि, अपराजितसूरि, धनञ्जय, आर्यनन्दि, अनन्तकीति, पुष्पसेन, अनन्तवीर्य, विद्यानन्दि, जोइन्दु आदि अनेक जैनाचार्य हुए हैं। श्रमणवेलगोला का निर्माता चामुण्डरय गंगवंस का अन्तिम राजा था। नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती इसी के राजाश्रय में रहे हैं। इस समय जैनधर्म राष्ट्रधर्म-सा बन गया था। गंगराजाओं ने अनेक जैन मन्दिरों का भी निर्माण कराया। पुलकेशी ( ५३२-५६५ ई.) वादामी के पश्चिमी चालुक्यवंश का संस्थापक था। चालुक्य वंश में जैनधर्म बहुत लोकप्रिय रहा है। प्रसिद्ध जैनाचार्य रविक्रीति और भट्टाकलंक पुलकेशिन द्वितीय के राजकवि थे। पुष्पदन्त, विमलचन्द्र, कुमारनन्दि और वृहत् अनन्तवीर्य विनीतदेव के राज्याश्रय में रहे हैं। वेगि के पूर्वी चालुक्य भी जैनधर्म के पालक रहे हैं। कुब्जविष्णुवर्धन और विष्णुवर्धन (७६४-७९९ ई.) के राज्याश्रय में कलिभद्र और श्रीनन्दी आचार्य रहे हैं। रामतीर्थ (विशाखापत्तनम्) की पहाडियां इसीसमय जैन संस्कृति की केन्द्रस्थली बनी। कल्याणी का दक्षिणी चालुक्य वंश भी जनधर्म से प्रभावित रहा है। महाराष्ट्र में प्राप्त अभिलेख इस तथ्य के प्रमाण हैं। तैलप (१०वीं शती) चेन्नपार्श्व वसदि शिलालेख के अनुसार जैनधर्म का अनुयायी था। रन उसका राजकवि था । जयसिंह द्वितीय और कुमारपाल, वादिराजसूरि अर्हनन्दी और वासवचन्द्र के आश्रयदाता रहे हैं। यह चालुक्य वंश जैनधर्म के प्रति उदार रहा है। सौराष्ट्र में पालिताना, गिरनार, और तारंगा समूचे चालक्यों की जैनकला के प्रति अभिरुचि का परिणाम कहा जा सकता है। चालुक्यों के बाद आठवीं शती में राष्ट्रकूटों ने दक्षिण पर अधिकार किया । अकालवर्ष शुभतुंग ने एलोरा में जैन मन्दिर बनवाया । एलोरा दिगम्बर जैनधर्म का केन्द्र इस समय तक बन चुका था। दन्तिदुर्ग ने तो एलोरा को ही राजधानी बना लिया। स्वयम्भू और वीरसेन ध्रुव के राजकवि थे। जिनसेन, विनयसेन, पपसेन, विद्यानन्दि, अनन्तकीति, अनन्तवीर्य आदि जैनाचार्य १. Studies in South Indian Jainism, P. 110-11.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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