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________________ ३१८ हो जाता है और सिद्ध कहलाने लगता है। उसके पुनः कर्मबन्ध की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं होती। जैसे बीज के पूर्णतया जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार कर्मबीज के दग्ध हो जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता। फलतः उसमें क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्यावाधत्व आदि गुण प्रगट हो जाते हैं। मोक्षावस्था में अतीन्द्रिय सुख के विषय में दार्शनिकों के बीच मतभेद है। बौद्धधर्म में तृष्णा के क्षय को 'निर्वाण' कहा गया है। शरीर शेष रहते हुए तृष्णा का विनाश मोपधिशेष निर्वाण कहलाता है और शरीर के निःशेष हो जान पर निरुपधिशेष निर्वाण कहा जाता है। इसी अवस्था को अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत कहा गया है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण के सन्दर्भ में भी विकास हुआ है। वहाँ आत्मदर्शन को ही संसार का कारण माना गया है। सांसारिक पदार्थों में अनित्य, अनात्म, दुःखरूप की भावना आने से ही ममत्व हटता है और वैराग्य उत्पन्न होता है । वैराग्य उत्पन्न होने से अविद्या, तृष्णा आदि के अभाव रे युक्त चित्तसन्तति स्वरूप संसार का नाश हो जाता है। यही मोक्ष है।' बौद्ध दर्शन की दृष्टि में मुक्ति अवस्था में चित्त-सन्तान का अत्यन्त उच्छेर हो जाने से चित्त प्रवाह रूप आत्मा की सत्ता ही जब नहीं है तब सुख होगा कैसे? यहां मूल में ही मतभेद है। फिर भी आत्मा के समकक्ष यदि किसी पदार्थ को बौन दर्शन में देखा जाय तो वह है 'चित्तसन्तति' । यह चित्तसन्तति सांसारिक अवस्थ में साश्रव अर्थात् अविद्या और तृष्णा से संयुक्त थी, प्रव्रज्या आदि अनुष्ठानों वही चित्त सन्तति निराश्रव अविद्या तृष्णासे रहित हो जाती है। इस निराध अर्थात् चित्तसन्तति को यदि सान्वय (वास्तविक रूप से पूर्व उत्तर-क्षणों में अपन सत्ता रखने वाली) माना जाय तो उसे निर्वाण का सही स्वरूप कहा जा सकता है निरन्वय मानने पर बंधनेवाले और छूटनेवाले के बीच कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा निर्वाण को 'असंस्कृत' कहा गया है वह भी सही है । उसमें उत्पाद-व्यय-धौव्य व कोई सम्बन्ध ही नही। पर यह अवश्य है कि जन्म, जरा, मरण आदि से विनिर्मुग अवस्था सुखरूप ही होगी। वैशेषिक दर्शन के अनुसार जब आत्मा का तत्त्वज्ञान परिपूर्ण रूप विकसित हो जाता है तब उस तत्त्वज्ञान के बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयर १. सुत्तनिपात, पारायण वाग २. विशेष देखिये, लेखक की पुस्तक-बौर संस्कृति का इतिहास, पृ. १०५-१११. ३. प्रमाणवार्तिक, १. २१९-२२१.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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