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________________ ३१६ ७. ज्ञान ८-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान, कुमति, कुश्रुत और कुअवधिज्ञान । ८. संयम ७ - संयम की सात अवस्थायें होती हैं-असंयम, संयमासंयम, सामायिक संयम, छेदोपस्थापना संयम, परिहार विशुद्धि संयम, सूक्ष्मसांपराय संयम और यथाख्यात संयम। ९. दर्शन ४ - चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन । १०. लेश्या ६ - कषाय से अनुरञ्जित प्रवृत्ति का नाम लेश्या है। इसके छह भेद है - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पम और शुक्ल लेश्या । भव्य २ - भव्य और अभव्य । निर्वाण पाने की योग्यता जिनमे प्रगट हो सके वह भव्य है और अन्य अभव्य है । १२. सम्यक्त्व ५ - सत्त्त तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। वह पांच प्रकार का है-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, क्षयोपशम सम्यक्त्व उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व । १३. संज्ञी २ - शिक्षा, क्रिया, आलाप आदि ग्रहण करने वाला संजी है और इसके विपरीत असंज्ञी है। आहार २ - उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करन आहार है और इसके विपरीत अनाहार है। विग्रहगति, केवली समुद्घात, और अयोगी केवली अवस्था में जीव अनाहारक होता है। मार्गणा में धर्म विशेषों के कारण जीवों की खोज की जाती है औ प्ररूपणा में पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणों से उनकी परीक्षा की जाती है। इ प्ररूपणों की संख्या बीस कही गयी है-गुण स्थान, जीव समास, पर्याप्त, प्राण संज्ञा, चौदह मार्गणायें और उपयोग। १४. चारित्र के मेव: चारित्र का कार्य है - मोह के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने वाली आत्मविशुद्धि (समता) की अभिव्यक्ति । इसमें अहिंसा का परिपाल तथा इन्द्रियों पर संयमन करना आवश्यक होता है। चारित्र के पांच * १. चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिहिट्ठो। मोहल्लोह विहीणो परिणामो अप्पणो हि समो॥ प्रवचनसार १.७
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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