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________________ २८९ झुक जाती है। जैसे ही उसे उस झुकाव का ध्यान आता है, वह पुनः अप्रमत्त हो जाता है। इस तरह उसकी वृत्ति प्रमाद से अप्रमाद और अप्रमाद से प्रमाद की और दौड़ती रहती है। वह संयत रहने पर भी प्रमत्त है।' ७. अप्रमत्तसंयत : छठा गुणस्थानवी जीव जब अप्रमत्त होकर सम्यक् आचरण करता है तो उसके अप्रमत्त संयत अवस्था प्रगट होती है। वर्तमान काल में इस गुणस्थान से आगे कोई भी साधु नहीं जा पाता क्योंकि ऊपर के गुणस्थानों को प्राप्त करने की शक्ति उसमें नहीं रहती। इस अवस्था के दो भेद हैं -स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । स्वस्थान अप्रमत्त छठे से सातवें और सातवें से छठे गुणस्थान में 'घूमता रहता है पर सातिशय अप्रमत्ती मोहनीय कर्म को नष्ट करने के लिए उद्योगसील बना रहता है। ८. अपूर्वकरण : इस गुणस्थान में जीव के भाव अपूर्व रूप से विशुद्ध होते हैं। इसलिए इसे अपूर्वकरण कहा गया है। यहां से जीव पतित नहीं होता बल्कि उसकी विशुद्धावस्था का रूप निखरता चला जाता है। मोहनीय कर्म को नष्ट करने की भूमिका का भी निर्माण यहीं होता है। चरित्र की अपेक्षा इस गुणस्थान में क्षापिक व औपशमिक भाव ही संभव हैं । यहाँ एक भी कर्म का उपशम या वय नहीं होता। आठवें गुणस्थान से जीवों की दो श्रेणियां प्रारंभ हो जाती हैंउपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणी में चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम किया जाता है और क्षपकश्रेणी में उनका क्षय किया जाता है। उपशम श्रेणी के चार गुणस्थान होते हैं-आठवें से बारहवें तक । अपक श्रेणी के भी चार गुणस्थान होते हैं-आठवां, नौवां, दशां और बारहवाँ । उपशमश्रेणी पर तद्भवमोक्षगामी, अतद्भवमोक्षगामी, औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दोनों प्रकार के जीव चढ़ सकते हैं पर क्षपक श्रेणी पर मात्र तद्भव और अतद्भव मोक्षगामी ही चढ़ने का सामर्थ्य रखते हैं । उपशम श्रेणीवर्ती जीव ग्यारहवें गुणस्थान से नियमतः पतित होता है और वह प्रथम १. पंचसंग्रह, १. १४; धवला, १. १. १. १४. २. वही (प्रा.), १ १६; तत्वार्थसार, २. २५. ३. धवला, १. पृ. १८०; धर्मबिन्दु, ८.५; भावसंग्रह, ६४८.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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