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________________ २८२ धारी श्रावक को भिक्षुक और उत्कृष्ट श्रावक कहा है। उनकी भिक्षा के भी चार भेद, किये गये हैं-अनुमान्या, समुद्देश्या, त्रिशुदा और भ्रामरी'। आशाधर आदि विद्वानों ने भी श्रावकों के उपर्युक्त भेदों का अनुकरण किया है।' अणुव्रतों और प्रतिमाओं के प्रकारों में समय के अनुसार परिवर्तन अवश्य मिलता है पर उसकी पृष्ठभूमि सदैव यही रही है कि व्यक्ति शाश्वत सुख की ओर अपने आपको मोड़ता जाये, परदुःखकातरता की ओर आगे बढ़े और भौतिक सुख-साधनों की ओर से मुंह मोड़कर आध्यात्मिक परम सुख के साधनों को एकत्र करने लगे। यह आत्मोन्मुखी वृत्ति परकल्याण की आधार भूमिका बन जाती है। श्रावक की इस अवस्था में ज्ञानाचार (श्रुतज्ञान), दर्शनाचार (सम्यग्दर्शन), चारित्राचार (समितियों और गुप्तियों का परिपालना), तपाचार (बाहय-आभ्यन्तर तप) और वीर्याचार (यथाशक्ति आचार ग्रहण) सुदृढ़ हो जाता है। अर्हत्प्राप्ति इसी की अभिहिति मात्र है। ३. साधक धावक श्रावक की यह ततीय अवस्था है। यहां तक पहुँचते-पहुंचते वह विषय-वासनाओं से अनासक्त होकर शरीर को भी बन्धन रूप समझने लगता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के समन्वित आचरण से उसका मन संसारसे विरक्त हो जाता है। उस स्थिति में यदि शरीर और इन्द्रियाँ अपना काम करना बन्द कर देती है तो सम्यक् आचरण में बाधा उत्पन्न होती है और पराधीनता बढ़ती चली जाती है। इसलिए उससे मुक्त होने के लिए साधु अथवा श्रावक सल्लेखना (समाधिमरण) धारण करता है। इस व्रत में आमरण निरासक्त होकर आहार, जलादिक का पूर्णतः त्याग कर दिया जाता है और धर्माराधनपूर्वक शरीर त्याग करने का संकल्प ग्रहण कर लिया जाता है। आज की परिभाषा में इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। सल्लखना सल्लेखना का तात्पर्य है-सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को कृष (लेसन)करना। यह व्रत विशेषतः उस समय ग्रहण किया जाता है जब कि साधक १. मास्तिलक चम्मू, भाग २, पृ ४१०; श्लोक ८५५-५६, ८-९०. १. सागार धर्मामृत, ३.२-३; पारिपसार, पृ. ४०. ३. महापुराण, ३९.१४९, चारित्रसार, ४१-२. ४. साप सिवि, ७.२२, बसुनन्दि भावकाचार, २७२ वी गावा.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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