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________________ २८० ९. परिपहत्याण प्रतिमा : जो श्रावक क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण,धन, धान्य, दास, दासी, कुप्य, भाण्ड इन दस प्रकार के परिग्रहों को छोड़ देता है वह परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। इस अवस्था में वह सहसा घर नहीं छोड़ता पर घर छोड़ने का अभ्यास अवश्य करता है। उदासीनआश्रम में वह अपने रहने की व्यवस्था कर लेता है। संतोष वृत्ति होने के कारण संचित परिग्रह से भी उसे ममत्व नहीं रहता। राग-द्वेषादि अन्तरंग परिग्रह के त्याग की ओर भी वह बढ़ जाता है। शेष वस्त्ररूप में भी उसे मूर्छा नहीं रहती। अपनी रक्षा के लिए वस्त्र, घर, अभिषेक-पूजादि के वर्तन धर्म साधन के लिए ग्रन्थ आदि पास रख लेता है और शेष परिग्रह को त्याग देता है। पहले परिग्रह का परिमाण कर लिया गया था पर इस प्रतिमा में उसका त्याग कर दिया गया है। उपासकदशांग की परम्परा में 'स्वयं आरम्भ वर्जन' और 'भूतक प्रेष्यारम्भ वर्जन' ये दो नाम क्रमशः अष्टमी और नवमी प्रतिमा को दिये गये हैं। १०. अनुमतित्याग प्रतिमा : परिग्रह त्याग करने से श्रावक शुद्ध आध्यात्मिक क्षेत्र में आ जाता है। इस अवस्था तक वह अपने गार्हस्थिक कर्तव्यों को बड़ी कुशलता पूर्वक पूरा करता है। जब वह देखता है कि उसके लड़के घर, व्यापार आदि का कार्यभार संभालने के योग्य हो गये हैं तो वह विवाह, व्यापार आदि जैसे कार्यों में अपनी अनुमति देना भी बन्द कर देता है। भोजन में भी किसी भी प्रकार का रसलोलुपी नहीं होता। थाली में जो भी आ जाता है, उसे वह ग्रहण कर लेता है। अपनी बोर से किसी भी व्यञ्जन को बनाने की बात नहीं करता। वह यह मानता है कि शरीर की स्थिति के लिए ही यह भोजन है और शरीर की स्थिति धर्मसिद्धि के लिये है। दसवीं प्रतिमा तक आते-आते श्रावक घर और परिवार छोड़ने की स्थिति में आजाता है। अपनी पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं का अभ्यास करने से मृहस्थी के प्रति उसका मोह भी छूटता चला जाता है और सन्तान भी उत्तरदायित्व को बहन करने के योग्य हो जाती है। अतः सभी की अनुमति पूर्वक वह श्रावक पर छोड़ देता है और जैन मन्दिर या स्थानक में रहने लगता है। १. कार्तिकेयानुपेक्षा, ३३९-३४०. २. रत्नकरणबावकाचार, १४६; सागार धर्मामृत ७.३१-३४.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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