SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ रहता है। कुदेव,कुमतावलम्बी सेवक, कुशास्त्र, कुतप, कुशास्त्रज्ञ और कुलिङ्ग, इन षड् अनायतनों से वह अपने आपको बहुत दूर रखता है। इन अनायतनों का विकास सम्भवतः उत्तरकालीन रहा होगा। शंकादि आठ दोषों से भी उसे मुक्त होना चाहिए। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के कारण : इस प्रकार सम्यग्दर्शन के विघातक ये पच्चीस दोष जब सम्यग्दृष्टिका साथ छोड़ देते हैं तो उसका मन ऐहिक वासनाओं से अनासक्त हो जाता है। वह न्याय पूर्वक धनार्जन करता है और सम्पत्ति और विपत्ति में समभावी रहता है। उसे न इहलोक का भय रहता है न परलोक का, और न वेदना, मरण, अरक्षा अगुप्ति अथवा अकस्मात् भय का । वह तो संसार के स्वरूप को जानने लगता है, वस्तुतत्व को समझने लगता है। इसलिए उसमें संवेग, निर्वेद, उपशम, स्वनन्दा, गो, भक्ति, वात्सल्य, और अनुकम्पा जैसे मानवीय गुण प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार के आचार-विचार से श्रावक का मन शाश्वत शान्ति की प्राप्ति की ओर बढ़ने लगता है। वह जुआ, मद्यपान, मांस भक्षण, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, और परस्त्रीगमन जैसे दुर्गति के कारणभूत सप्त व्यसनों का मोह नहीं करता । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति के दुःखों से वह भयवीत रहता है। और बात्मा को निर्मल बनाने में सजग रहता है। इस स्थिति में वह हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, इन पांच पापों का एकदेश त्याग करता है, अष्ट मूल गुणों (मद्य, मांस, मधु, तथा बड़, पीपर, पाकर, ऊमर तथा कठूमर (कठहल) इन पांच उदुम्बर फलों का त्याग) का पालन करता है, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक रखता है, अध्ययन, मनन और चिन्तन में अपना सारा समय लगाता है तथा अनित्य, अशरण, संसार, अन्यत्व, एकत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जरा, बोधिदुर्लम, लोक और धर्म इन बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) पर सतत विचार करता रहता है। बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने से जीव रागादि दोषों से दूर होने का पथ प्रशस्त कर लेता है और शुद्धात्मा के स्वरूप की प्राप्ति की ओर बढ़ जाता है। सम्यग्दर्शन की भी प्राप्ति का यह प्रमुख कारण है। आत्मा शायक स्वभावी है। पर कर्मों के कारण यह स्वभाव प्रच्छन्न-सा हो जाता है । स्वपर-भेदविज्ञान द्वारा मूल स्वभाव को प्राप्त किया जा सकता है। यह प्राप्ति तेरहवें गुणस्थान में हो पाती है। तबतक व्यवहार धर्म का आश्रय लेना पड़ता है। साधक चतुर्ष से षष्ठ गुण स्थान तक व्यवहार को प्रधान मानता है और निश्चय को गौण तथा
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy