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________________ षष्ठ परिवत जैन आचार मीमांसा १. धावकाचार जैन साधना के क्षेत्र में सम्यक् आचार निर्वाण की प्राप्ति के लिये एक विशुद्ध साधन माना गया है। इसका वर्णन संवर और निर्जरा के अन्तर्गत आता है। कर्मों की निर्जरा करने और आत्मा को विशुद्धावस्था में लाने के लिए साधक क्रमशः श्रावक और मुनि आचार का परिपालन करता है और आध्यात्मिक विकास की सीढियाँ चढ़ता चला जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक यह है कि उसका सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्जान की सुदृढ़ भित्ति पर आधारित हो। साधना की इस परम और चरम दमामें पहुंचने के लिए साधक को क्रमशः श्रावक और मुनि आचार की साधना अपेक्षित हो जाती है। बावकाचार साहित्य : बन साहित्य में आचारसंहिता पर पृथक् रूप से आचार्यों ने संस्कृतप्राकृत-अपभ्रंश में अनेक प्रन्यों का निर्माण किया है। श्रावकाचार के क्षेत्र में उपासकदशांग. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र आदि कुछ आगम ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं जिनमें श्रावकों के आचार की रूपरेखा मिलती है। आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त आचार्यों का जो साहित्य इस विषय पर प्राप्त होता है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : माचार्य १. कुन्दकुन्द (लगभग प्रथम अपाहुड विशेषतः चरित्र प्राकृत शती ई.) पाहुड में प्राप्त मात्र छह गाथायें (२९५-३०१) तथा रयणसार २. स्वामी कार्तिकेय (ल. द्वितीय कट्टिगेयाणुवेक्सा प्राकृत शती ई.) (धर्मभावना के अन्तर्गत)
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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