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________________ २४७ किसी ने सही रूप से समझने का प्रयत्न ही नहीं किया। अन्यथा ये प्रार सबले.ही नहीं । राधाकृष्णन जैसे भारतीय मनीषी भी उसे सम्यक् नहीं समझ सके। इस.प्रकार अनेकान्तवादी नयवाद और स्यावाद के माध्यम से वस्तु का सम्यक् विवेचन करने में समर्थ हो जाता है। वह यथार्थतः विभिन्न एकान्त वादियों के बीच कुशल न्यायाधीश का कार्य करता है। वह सभी की दृष्टियों तथा तकों को निष्पक्ष भाव से सुनकर तटस्थ वृत्ति से स्याद्वाद की आधार शिला पर खड़े होकर पदार्थ के स्वरूप को उपस्थित करता है । यह एक ऐसा विचित्र और अनूठा सिद्धान्त है जिसमें सभी पक्षों का समान आदर सन्निहित रहता है। यही इसकी विशेषता है । अनेकान्तवाद के उपर्युक्त इतिहास के देखने से यह स्पष्ट है कि चिन्तन के क्षेत्र में 'अनेकान्तवाद और विचार के क्षेत्र में 'स्याद्वाद'ने विषम वातावरण को सौम्य और सहृदय बनाने का प्रयल किया। निस्सन्देह इसे उनका एक महनीय योगदान कहा जा सकता है। संसार की प्रकृति में द्वैतवाद और अद्वैतवाद अथवा नानात्ववाद और एकलवार मुले हुए हैं। उनकी दार्शनिक मान्यतायें अनुभूति के परे नहीं। दोनों प्रकार की मान्यताओं के बीच स्वस्थ सम्बन्ध को स्थापित करने की दृष्टि से निस्सयनर मोर व्यवहारनय की स्थापना की गई है। निश्चयनय पदार्थ के मूल स्वरूप पर विचार करता है अतः वह सूक्ष्मग्राही है तथा व्यवहारनब परसर्च में समागत अन्य पदार्थों के मिश्रण से उत्पन्न तत्वों का विश्लेषण करता है मनः वह स्थूलग्राही है । बौखदर्शन का स्थविरवादी सम्प्रदाय निश्चयनय और व्यवहारनय के स्थान पर नीतार्थ और नेय्यार्थ अथवा परसत्यसच बोर समुलिसच्च, विज्ञानवादी परिनिष्पन्न और परतन्त्र, तथा शून्यवाद परमार्य और लोकपति-सत्य नाम देते हैं । शंकराचार्य ने भी इन्हें क्रमशः पारमाथिक सत्य और व्यावहारिक सत्य कहा है । पारमार्थिक सत्य को सही बंग से समझने के लिए व्यावहारिक सत्य को समझना अत्यावश्यक है । जैनागमों में जीव और कर्माकासम्बाक तथा द्रव्य की व्यवस्था इन दोनों नयों के आधार पर स्पष्ट बाचार के क्षेत्र में भी इन नवों का उपयोग हमा। तत्वज्ञान के क्षेत्र में बाँबेगम बौर पदार्थ के स्वरूप पर विचार करते हैं वहीं आचार के मंत्र मेंबन्ध मोर मोका तत्व को स्पष्ट करते हैं। व्यवहार इन्धि वामा के भारमको बो सीमार करती है। यही होपयोग का देव।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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