SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ लेफर तीषिकों के प्रत्नों का उत्तर दिया था-को खलु वयंदेवाणुप्पिमा, अत्विमा नत्पित्ति वदामो, नत्यिमावं अत्यित्ति वदामो। अम्हे गं देवाणुप्पिया ! सम्बं अविभावं अत्पीति वदामो, सब्बं नत्थिभावं नत्थीति वदामो।' बोर साहित्य के ही एक अन्य उद्धरण से यह पता चलता है कि भ. महावीर तीन भंगों का भी उपयोग किया करते थे। उनके शिष्य दीपनख परिव्वाजक का निम्न कथन भ. बुद्ध की आलोचना का विषय बना था १. सम्बं मे खमति २. सब्बं में न खमति ३. एकच्चं मे खमति, एकच्चं में न खमति वेदों और त्रिपिटक ग्रन्थों में चतुष्कोटियों का उल्लेख आता है पर प्राचीन बौर साहित्य में भ. महावीर के सिद्धान्तों के साथ उक्त तीन ही भंग दिखाई देते हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि भ. महावीर ने मुलतः इन्हीं तीन अंगों को स्वीकार किया होगा । अतः अवक्तव्य का स्थान तीसरा न होकर बीषा जैनाचार्यों ने अनेकांतवाद पर विशेष चिन्तन किया। उनके चिन्तन का यही सम्बल या । इसलिए जब तृतीय अथवा चतुर्थ भंग के साथ भी एकान्तिक दृष्टि का आक्षेप किया गया तो उन्होंने उससे बचने के लिए सप्त भंगों का सूजन किया। इस सप्तमंगी साधना में हर प्रकार का विरोष और ऐकान्तिक दृष्टि समाधिस्थ हो जाती है। भगवतीसूत्र, सूत्रकृतांग, पंचास्तिकाय आदि प्राचीन ग्रंथों में यही विकसित रूप दिखाई देता है । उत्तर कालीन बौद्ध साहित्य में भी इसके संकेत मिलते हैं। थेरगाथा में कहा है-एकङ्गदस्सी दुम्मेषो, सतदस्सी च पण्डितो । यहाँ 'सतरस्सी' के स्थान पर, लगता है, 'सत्तदस्सी' पाठ होना चाहिए था। इसे यदि हम सही माने तो सप्तभंगी का रूप स्पष्ट हो जाता है और उसकी और भी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। बनदर्शन ने द्रव्याथिक और पर्यायाथिक निश्चयनय और व्यवहारलया सानय और अशुबनय, पारमापिकनय और व्यावहारिकनय आदि रूप से भी पदार्य का चिन्तन किया है। परन्तु इनका प्राचीन रूप बौद्ध साहित्य अथवा अन्य नेतर साहित्य में नहीं मिलता। संभव है, उसे उत्तरकाल में नियोजित किया गया हो। १. मनवतीसून, ७.१०.३०४.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy