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________________ २७ भान विशिष्ट होता है। वही प्रत्यक्ष रूप ज्ञान है । जबकि सविकलाकमान अनुमान रूप होता है। इसी दृष्टि से बौददर्शन में वस्तु के दो लक्षण:स्वलक्षण और सामान्यलक्षण । स्वलक्षण वस्तु का मूल रूपात्मक होता है। अतः वह प्रत्यक्ष का विषय है तथा सामान्यलक्षणवस्तु के सामान्य रूप पर कल्पित होता है जो बनुमान का विषय है । प्रत्यक्ष में शब्द-संसृष्ट अर्थ का ग्रहण संभव नहीं। बतः बावदर्शन निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रमाण मानता है, सविकल्पक को नहीं। यही कारण है कि वहां दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष को कल्पना से विरहित बभ्रान्त ज्ञान माना है-'कल्पनापोठमप्रान्तं प्रत्यक्षम्। जैन दार्शनिकों ने बोडों द्वारा मान्य इस प्रत्यक्ष के स्वरूप की कटु बालोचना की है। उनका तर्क यह है कि बीताचार्य स्वयं निर्विकल्पक ज्ञान को निश्चयात्मक नहीं मानते। जो निश्चयात्मक नहीं होगा वह मान प्रमाण कैसे हो सकता है ? वह न तो स्वयं का निश्चय कर पाता है और न वर्षका ही । अतः वह व्यवहार-साधक भी नहीं। अतः उपचार से भले ही निर्विकल्पक को प्रमाण माना जाये, पर वस्तुतः सविकल्पक मान ही प्रमाण कहा जाना चाहिए। प्रमाण का फल जैनदर्शन में अज्ञान निवृत्ति और पदार्षदोष बताया गया है। मात्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शन है। अतः मात्मा की विशुद्धावस्था प्रनट हो जाने पर ज्ञान का फल केवलज्ञान और मुक्ति-प्राप्ति होता है। ज्ञान ही दार्शनिक क्षेत्र में प्रमाण हो जाता है। नैयायिक-वैशेषिक और मीमांसक आदि वैदिकदर्शन फल को प्रमाण से भिन्न मानते हैं।' बोर हानोपादानादि बुद्धि को उसका फल स्वीकारते हैं। इन्द्रिय व्यापार और सन्निकर्ष आदि को पूर्व-पूर्व की अपेक्षा फल और उत्तर-उत्तर की अपेक्षा प्रमाण माना जाता है। सौत्रान्तिक बौर ज्ञानगत अकार या सारूप्य को प्रमाण स्वीकार करते हैं और विषय के अधिगम को उसका फल मानते है, पकि विज्ञानवाद स्वसंवेदन को फल मानता है बार शानगत तयाविष योग्यता को प्रमाण स्वीकार करता है। धर्मकीर्ति ने प्रमाण के दो फल माने है-हान बार उपादान । वात्स्यायन ने उसमें उपेमाबुद्धि और जोड़ दिया जिसे सिखसेन, समन्तभद्र, अकलंक आदि जैनाचार्यों ने भी स्वीकार कर लिया। १. न्यायकुमुवचन्द, पृ. ४८ २. कोकवार्तिक, ७४-७५
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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