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________________ २०५ नवीन निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं मानता उसकी दृष्टि में निरषयात्मक सविकल्पक ज्ञान ही प्रत्पन है। निर्विकल्पक शान निराकार होने से लोकव्यवहार चलाने में असमर्थ होता है और उससे पदार्य का विषय भी नहीं हो सकता । जो स्वयं अनिश्चयात्मक है वह निश्चयात्मक ज्ञान को उत्पन कैसे कर सकता है ? विकल्प में एक निश्चिति और वियता रहती है। अकलंकदेव के प्रत्यक्ष-लक्षण में 'साकार' और 'अञसा' पद यही वोतित करते हैं। २. परोक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं होती । अतः वह विशद माना जाता है। परन्तु परोक्ष प्रमाण विशद नहीं होता । वह भात्मेतर साधनों पर अवलम्बित रहता है । परोक्ष के पांच भेद है-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, बनुमान और बागम। १. स्मृति प्रमाण: पूर्व शात वस्तु विशेष का स्मरण माना स्मृति ज्ञान है । जैसे-'यह वही पुस्तक है जिसे हमने कल देखी पी' । इस शान में 'पूर्वज्ञात' रूप में 'तत्' शब्द अवश्य बाता है। समूचा व्यवहार, इतिहास और संस्कृति स्मृति प्रमाण पर बाधारित है। चार्वाक, बोट और वैदिक परम्परा में स्मृति को प्रमाण नहीं माना गया । इसका मूलकारण कहीं उसका ग्रहीत-पाहित्व है, कहीं वेद का अपौरुषेयत्व बार कहीं वर्ष से अनुत्पनत्व । स्मृति का सम्बन्ध अतीत ज्ञान से है जो नष्ट हो चुका । जो वस्तु नष्ट हो चुकी हो वह ज्ञान की उत्पत्ति में कारण कैसे हो सकती है? परन्तु जैनदर्शन इन तकों को स्वीकार नहीं करता। उसकी दृष्टि में स्मृति प्रमाण है और वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भिन्न है। प्रत्यक्षादि शान में चन मादि मूल कारण होते हैं जबकि स्मृति में पूर्व ज्ञान की प्रबल वासना (संस्कार) काम करती है । ग्रहीत वस्तु को ग्रहण करने के कारण बवि स्मृति को प्रमाण नहीं माना जाता तो प्रत्यक्षादि प्रमाण भी मस्वीकार्य हो जायेंगे क्योंकि वे भी ग्रहीतमाही होते हैं। पर यह संभव नहीं। प्रमाण में अबतक 'अविसंवादिता' रहती है तबतक उसे हम प्रमाणकोटि से बाहर नहीं कर सकते । १. अविषः प्रत्यमम्-प्रमाणमीमांसा १.२.१. २. प्रमाणनयतत्तालोक, १.२. प्रमेयरलमाग, ...
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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