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________________ उनके प्रमाण भेद की बात तो मानी पर स्मृति-ज्ञानों के साथ लगी शर्त को] स्वीकार नहीं किया। उनके स्थान पर उन्होंने कहा कि अवग्रह से धारणा पर्यन्त ज्ञान वस्तु के एकदेश को स्पष्ट करते हैं अत: उन्हें इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष माना जाना चाहिए तथा स्मृति आदि शानों को सीधे शब्दों में परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत रखा जाना चाहिए । इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमाण के दो भेद व्यवस्थित हुए-प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के भी दो भेद हुए-सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और मुख्य अपवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष। सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में मतिज्ञान और उसके भेद-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा तथा मुख्य अथवा परमाथिक प्रत्यक्ष में भवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान रखं गये । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम को परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्वीकार किया गया। यहां जिसे सांस्ययोग, वैशेषिक, मीमांसक, बोट आदि दर्शन अलौकिक अथवा योगिप्रत्यक्ष कहते हैं उसे ही जैनदर्शन ने मुख्य अथवा पारमार्थिक अथवा अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है और जिसे वहां लौकिक प्रत्यक्ष कहा गया है उसे यहां सांव्यावहारिक अथवा इन्द्रिय प्रत्यक्ष माना है। प्रत्यक्ष का सामान्य लक्षण स्पष्ट किये जाने पर यह भी प्रश्न उठा कि अलौकिक अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है अथवा सविकल्पक । बोर और शांकर वेदान्त ने निर्विकल्पक को ही अलौकिक प्रत्यक्ष स्वीकार किया पर अन्य दर्शन निर्विकल्पक और सविकल्पक दोनों के संमिलित रूप को स्वीकार करते हैं । जैन दर्शन का अवधिदर्शन और केवलदर्शन अलौकिक निर्विकल्पक है तथा अवधिशान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान सविकल्पक है। बौद्धदर्शन में "कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्" (कल्पना से रहित निर्धान्त ज्ञान प्रत्यक्ष है) के रूप में प्रत्यक्ष का लक्षण किया है । 'कल्पना' का तात्पर्य है शब्द विशिष्ट प्रतीति । प्रत्यक्ष का विषय-क्षेत्र स्वलक्षण है जो क्षणिक है और परमार्थतः शब्दशून्य है । शब्द के साथ अर्थ का कोई सम्बन्ध नहीं । पदार्थ का दर्शन होने पर ही वह विलीन हो जाता है और हम उसे किसी नाम से अभिहित करने लगते हैं। अतः पदार्थ क्षणिक होने पर उसका ज्ञान निर्विकल्पक ही होगा, सविकल्पक नहीं । सविकल्पक प्रत्यक्ष में आयी विशवता और अर्थनियतता निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होने के बाद आती है। निर्विकल्पक की ही विशवता सविकल्पक में प्रतिबिम्बित होने लगती है। अतः निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्ष मानना चाहिए, सविकल्पक को नहीं।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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