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________________ १९६ 'भवप्रत्यय' कहते हैं । जैसे पक्षीगण आकाश में उड़ते हैं। यह गुण उनमें पक्षी कुल में जन्म लेने के निमित्त से ही आया है । देव नारकियों में जो अवधिज्ञान होता है वह इसी प्रकार का है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान की उत्पत्ति क्षयोपशम निमित्तक होती है । सम्यग्दर्शन आदि गुणों के उत्पन्न होने से यह क्षयोपशम होता है। यह अवधिज्ञान तिर्यञ्च और मनुष्यों को होता है। स्वरूप की अपेक्षा अवधिज्ञान के छ: भेद होते हैं- अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित' । विषय की अपेक्षा उसके तीन भेद हैं- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि है और गुणप्रत्यय तीनों प्रकार का है। अवधिज्ञानी व्यक्ति इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना रूपी पदार्थों को उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जानता है । मन:पर्ययज्ञान दो प्रकार का- ऋऋजुमति और विपुलमति । 'ऋजुमति' में साधक स्पष्ट रूप से मनोगत अर्थ का विचार करता है, कथन करता है और शारीरिक क्रिया भी करता है पर वह कालान्तर में विस्तृत हो जाता है। इस शान में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रहती है। 'विपुलमति' ऋजु के साथ ही साथ कुटिल मन, वचन, काय सम्बन्धी प्रवृत्तियों को भी जानता है । वह अपने या पर के व्यक्त मन से या अव्यक्त मन से चिन्तित, अचिन्तित या अर्धचिन्तित, सभी प्रकार से चिन्ता, जीवित, मरण, सुख, दु:ख, लाभ, अलाभ आदि को जानता है । ऋऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति में ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाली निर्मलता अधिक होती है और वह ज्ञान सूक्ष्म तथा अप्रतिपाती भी होता है । इस प्रकार मन:पर्यय ज्ञान दूसरे के मनोगत अर्थ को अथवा मनकी पर्याय को आत्मा की सहायता से प्रत्यक्ष जानता है । अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान में विशुद्धि क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा भेद होता है' । अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है पर मन:पर्यय ज्ञान सर्वावधि ज्ञान के अनन्तवें भाग को विषय करता है अतः अल्प विषयक है। फिर भी वह उस द्रव्यकी बहुत पर्यायों को जानता है। सूक्ष्मग्राही होकर भी उसमें विशुद्धता है । मन:पर्ययज्ञान का स्वामी संयमी मनुष्य ही होता है जबकि अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को होता है । अवधिज्ञान का विषय संपूर्ण रूपी द्रव्य है जबकि मन:पर्यय ज्ञान का विषय केवल मन है । १. मन्दी सूत्र, ८ २. 'सर्वार्थसिद्धि १.१० १. जयधबला, भाग १, पृ. १९ ४. विशुद्धिक्षेत्र स्वामि विषयेभ्यो ऽवधिमनः पर्यययोः, तत्वार्थ सूत्र १.२५
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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