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________________ परीक्षावावी महावीर : भ. महावीर परीक्षावादी थे। वे शंकराचार्य के समान प्रत्ययवादी नहीं थे। उनके चिन्तनशील व्यक्तित्व ने साधना काल में गहन चिन्तन, मनन और अनुप्रेक्षण किया जिसके फलस्वरूप उन्हें विशुद्ध आत्मज्ञान के रूप में केवलज्ञान की अजस्र ज्योति प्राप्त हुई। देशनाकाल में परंपराश्रित उनके शान-चिन्तन की अभिव्यक्ति हुई और संसार को एक नया प्रकाश मिला । साधक महावीर तीर्थकर महावीर बने और उन्होंने लगभग तीस वर्षों तक लगातार स्वानुभूतिजन्य ज्ञान-प्रकाश से प्राणियों के अज्ञानान्धकार को प्रच्छन्नकर उनकी भवबाधा को दूर करने का यथाशक्य प्रयत्न किया। कालान्तर में भ. महावीर के अनुयायी शिष्य-प्रशिष्यों ने यथासमय उनके चिन्तन को आगे बढ़ाया। फलतः जैनेतर सम्प्रदायों के सन्दर्भ में जैन दार्शनिक तथ्य विकसित होते चले गये। इस विकास में यह विशेषता थी कि चिन्तन ने अपने मूल स्वर को कतई त्यागा नहीं। इसी विशेषता ने जैनधर्म को जीवनदान दिया और उसकी स्थिति को बोरधर्म से बिलकुल भिन्न कर दिया। जैनधर्म की सरस-सरिता का प्रवाह अविच्छिन्न गति से चलता रहा। उसे कभी कठोर पर्वतों पर चलना पड़ा तो कभी दुरवपाहप वनों के टेढ़े-मेढ़े मामों से जूझना पड़ा और कभी मरुस्थलों की तेज बांधी बोर कठोर तूफान भी सहने पड़े। पर उसकी सहन-शक्ति, साहस गरिमा, अहिंसाशीलता तथा समन्वयवृत्ति कमी पददलित नहीं की जा सकी। उसने अपने घनघोर विपदा-क्षणों में भी विश्र नैतिक और आध्यात्मिक प्रतिष्ठा बनाये रखी। श्रामणिक धर्म और दर्शन स्वानुभूतिगम्य साधना की परीक्षावादी प्रबल भूमिका पर प्रतिष्ठित एक ऐसी विचारधारा है जिसे भ. महावीर और महात्वा बुद्ध जैसे चिन्तकों की सूक्म मनन-प्रक्रिया का अवलम्बन मिला। इतिहास के घरातल पर उसे अनेक थपेड़े खाना पड़े फिर भी वह अपने विकास-पब से पीछे नहीं हटा । लोकसंग्रह की भावना ने उसे जनता का धर्म बना दिया। उसका हर चरण व्यक्ति किंवा प्राणि मात्र के हित की भावना से अनुप्राणित रहा। साम्य की प्राप्ति का मूल मन्न-रलाय : म. महावीर ने बाध्यात्मिक, राजनीतिक एवं व्यावहारिक के मूल्यों को पृथक्-पृथक् न कर उन्हें एक ही सूत्र में गूंप दिया । वह मुहै सम्बग्दर्शन ज्ञानचारिवाणि मोक्षमार्गः । सम्यक् दर्शन, ज्ञान और पालिका परिपालन ही साध्य की प्राप्ति का प्रमुख साधन है। जासून, १.. न न
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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