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________________ स्थिति में होते हैं तो उसे उदय कहा जाता है। उदय निमित्तक भाव ही बोदविक कहलाते हैं । इन भावों-परिणामों के कारण जीवों को संसार में परिप्रमण करना पड़ता है। यह परिभ्रमण इक्कीस प्रकार का होता है i) पार गति-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । ii) चार कषाय-क्रोष, मान, माया और लोभ । iii) तीन लिङ्ग-स्त्री, पुरुष और नपुंसक । iv) मिथ्यादर्शन-तत्वार्य में मरुचि या अत्रवान होना । v) अज्ञान-आत्मा का ज्ञान रूप स्वभाव प्रगट न होना। vi) असंयम-हिंसादि और इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्ति । vii) असितत्व-कर्मों का समूल विनाश न होना । viii) छह लेश्यायें-कषाय के योग से मन वचन काय रूप त्रियोग में ___ होनेवाली प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । वे छह हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । द्रव्यकर्म के साथ मौदयिक भावों का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। कर्म का जितने अंश में आवरण होता है वह निमित्त कहलाता है और उसका फल नैमित्तिक कहलाता है। उदाहरणार्थ-शानावरणकर्म का बावरण निमित्त है और तदनुकूल शान की अभिव्यक्ति नैमित्तिक है। २. पारिवामिक भाव-जो भाव द्रव्य जीव में पर के सम्बन्ध के बिना स्वयमेव बाते हैं उन्हें पारिणामिक भाव कहा जाता है । चैतन्य भाव ही जीव का पारिणामिक भाव होता है । उसका सदैव अस्तित्व रहता है । यह भाव तीन प्रकार का होता है-जीवत्व, भव्यत्व बोर अभव्यत्व । जीवत्व जीव का निज-परिणाम है। जिसमें सम्यग्दर्शन-बान-बारित को प्राप्त करने की क्षमता होती है वह भव्य कहलाता है और जिसमें यह क्षमता नहीं होती वह अगम्य कहलाता है। ३. भोपामिक भाव-व्य, मंग, काल और भाव के निमित्त से कर्म की शक्ति का प्रगट न होना उपशम कहलाता है । मिथ्यात्व, सम्यक् बिवाल, बार सम्पपल, इन तीन दर्शनमोह तथा अनन्तानुबन्धी कोष, मान, माषा, नोम बेपार पारिखमोह, इस प्रकार सात कर्म प्रकृतियों के उपचम से बीपथमिक सम्बरवर्तन होता है। जैसे निर्मली के गलने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ पाता है और स्वच्छ पानी ऊपर मा जाता है। उसी प्रकार परिणामों की मिटि सेक्रो की शक्ति का प्रगट न हो पावा उपभम मोर उपचन के
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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