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________________ १२२ व्युत्पत्ति में द्रु (काष्ठ या वृक्ष ) के साथ य अव्यय, विकार या अवयव अर्थ में आया है और दूसरी व्युत्पत्ति में उसे तुल्य अर्थ में दिया गया है । अर्थात् काष्ठ का अवयव अथवा काष्ठ के तुल्य अनेक आकार धारण करने वाला पदार्थ द्रव्य है । कृदन्त के अनुसार गति प्राप्ति निमित्तक दु धातु से कर्मार्थक य प्रत्यय का नियोजन होने पर 'द्रव्य' शब्द की सिद्धि होती है । इससे पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की सूचना मिलती है । अकलंक ने कर्तृकर्म में भेद विवक्षा करके इसकी सिद्धि की है । जब द्रव्य को कर्म-पर्यायों का कर्ता बनाते हैं तब कर्म में दु धातु से य प्रत्यय हो जाता है और जब द्रव्य को कर्ता मानते हैं त 'बहुलापेक्षया कर्ता में 'य' प्रत्यय हो जाता है । इसका तात्पर्य है कि उत्पाद और बिनाश आदि अनेक पर्यायों के होते रहने पर भी जो सान्ततिक द्रब्य दृष्टि से नमन करता जाय वह द्रव्य है । अथवा जैनेन्द्र व्याकरण के 'द्रव्य भव्बे' सूत्र के अनुसार इसी द्रव्य शब्दको इवार्थक निपात माना जाय तो इसका अर्थ यह होगा कि जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी लकड़ी (द्रु) बढई आदि के निमित्त से 'टेबिल - कुरसी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है उसी तरह द्रव्य भी अल्प कारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है । जैसे "पाषाण खोदने से पानी निकलता है' यहाँ अविभक्तिकर्तृक करण है उसी तरह द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिए ।' उत्पाद व्यय रूप द्रव्यगत अवस्थायें ही पर्याय या परिणाम के नाम से जैन दर्शन में जानी जाती हैं । अतः जैन दर्शन परिणामि नित्यत्व को स्वीकार करता है । ' सदसत्कार्यवादित्व : इसी को उमास्वामी ने सत् कहा है जो उत्पाद-व्यय-धोग्य युक्त है ।" धौव्य को 'द्रव्य' कहते हैं और उत्पाद - व्यय को 'गुण' कहते है । इसलिए 'गुणपर्ययवम् द्रव्यम' भी द्रव्य की परिभाषा कही गई है ।" धौव्य नित्यता, सद्दशता और एकता का प्रतीक है जब कि गुणपर्याय अनित्यता, क्सिदृशता और अनेकता को स्पष्ट करता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अनन्त गुणों के अखण्ड पिण्ड को 'द्रव्य' कहा जाता है । उसमें उत्पाद, व्यय और धौव्य ये तीन तत्त्व रहते हैं । जब चेतन या अचेतन द्रव्य स्वजाति को छोड़े बिना पर्यायान्तर को प्राप्त करता है तो उसे उत्पाद कहा जाता है, जैसे मृत्पिण्ड में घट पर्याय । इसी प्रकार पूर्व पर्याय के विनाश को 'व्यय' कहते हैं। जैसे घड़े की उत्पत्ति होने १. तत्त्वार्थ वार्तिक, ५-२. १-२, सं. महेद्र कुमार न्यायाचार्य २. उत्पादव्यय धौव्य युक्तं सत्, सद्द्रव्यलक्षणम् - तत्त्वार्थसूत्र, ५.२८.३०. तद्भावाव्यं नित्यम्, ५-३३. ३. वही, ५-४१; समणसुतं, ६६२.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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