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________________ ११२ (वि. सं. १४८३) धनपाल ( ११ वीं शती) की तिलकमंजरी, वादीमसिंह ( १०१५ - ११५० ई.) की गद्य चितामणि, सोमदेव का यशस्तिलक जम्मू (वि. सं. १०१६), हरिचंद का जीवन्धरचम्पू आदि काव्य भी संस्कृत साहित्य के आभूषण कहे जा सकते हैं । संदेश काव्यों में पाश्वभ्युदय ( जिनसेनाचार्य, ८ वीं शती) नेमिदूत ( विक्रम, १४वीं शती), जैनमेषदूत (मेरुतुंग, १४ वीं शती), शीलदूत (चरित्र सुन्दरगणि, वि. सं. १४८४) पवनदूत ( वादिचन्द्र, वि. सं. १७२७) चेतोदूत, मेघदूत समस्यालेख, इंद्रदूत, चंद्रदूत आदि काव्यों में गीतितत्व वस्तुकथा का आश्रय लेकर सुंदर ढंग से संजोये गये हैं । जेनस्तोत्र साहित्य तो और भी समृद्ध हैं उसके भक्तामरस्तोत्र कल्याणमंदिर स्तोत्र, जिनसहस्त्रनाम तो अत्यंत प्रसिद्ध हैं । नाटक के क्षेत्र में भी जैनाचायों का का कम योगदान नहीं । उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक, रूपक और काल्पनिक विद्याओं में नाटकों की रचना की है । रामचंद्र ( १३ वीं शती) के सत्य हरिचन्द्र, नलविलास, मल्लिकामकरंद, कौमिदी मित्राणंद, रघुविलास, निर्भयभीम व्यायोग, रोहिणी मृगांक, राघवाभ्युदय यादवाभ्युदय और बनमाला, देवचंद्र का चन्द्रविजय प्रकरण विजयपाल का द्रौपदी स्वयंबर, रामभद्र का प्रबुद्धरोहिणेय, यशः पाल का मोहराज पराजय (१३ वीं शती) यशचंद्र का मुद्रित कुमुदचन्द्र, हस्तिमल्ल ( १३-१४ वीं शती) के अंजना - पवनंजय, सुभद्रानाटिका, विक्रांतकौरव, मैथिली कल्याण, वादिचंद्र का ज्ञान सूर्योदय (वि. सं. १६४८) आदि दृश्यकाव्य एक मोर जहाँ नाटकीय तत्त्वों से भरे हुए हैं वहीं उनमें जैन तत्त्वों का भी पर्याप्त अंकन है । इन सभी काव्यों में यद्यपि शृंगार आदि रसों का यथास्थान प्रयोग हुआ है पर प्रमुख रूप से शांत रस ने स्थान लिया है। जयसिंह सूरि कृत हम्मीरमर्दन, रत्नशेखरसूरि कृत प्रबोधचन्द्रोदय, मेघप्रभाचार्य कृत मदन पराजय भी उत्तम कोटिकी नाटच कृतियां हैं । १८. लाक्षणिक साहित्य लाक्षणिक साहित्य के अन्तर्गत व्याकरण, कोश, अलंकार, छंद, संगीत, कला, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिल्प इत्यादि विषायें सम्मिलित होती हैं । जैनाचार्यो ने इन विधाओं को भी उपेक्षित नहीं होने दिया । व्याकरण के क्षेत्र में देवनन्दि (६ वीं शतीं) का जैनेन्द्र व्याकरण और उस पार लिखी अनेक वृत्तियाँ पाल्यकीर्ति (९ वीं शती) का शाकटायन व्याकरण और उन पर लिखी बुतियाँ, हेमचन्द्र का सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन और उस पर लिखी अनेक " वृत्तियाँ वर्ष विदित हैं। उन्होंने जैनेतर सम्प्रदाय के माचायों द्वारा लिखित
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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