SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्धस्वामित्व (२४ गा.), षड्सीति (४६ गा.) और शतक (१०० गा.)। इन पांच ग्रन्थों को 'नव्यकर्मग्रन्य' कहा जाता है । जिनभद्रगणि की विशेषणवति, विजयविमलगणि (वि. सं. १६२३) का भाव प्रकरण (३० गा.), हर्षकुलगणि (१६ वीं शती) का बन्धहेतूदयत्रिभंगी (६५ गा.) और विजयविमलगणि (१७ वीं शती) का बन्धोदयसत्ताप्रकरण (२४ गा.) ग्रन्थ भी यहां उल्लेखनीय हैं। १२. सिदान्त साहित्य कर्मसाहित्य के अतिरिक्त कुछ और ग्रन्थ हैं जिन्हें हम आगम के अन्तर्गत रख सकते है । इन ग्रन्थों में आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती) के पवयणसार (२७५ गा.), समयसार (४१५ गा.), नियमसार (१८७ गा.), पंचत्यिकायसंगहसुत्त (१७३ गा.), दंसणपाहुड (३६ गा.), चारित्तपाहुड (४४ गा.), सुत्तपाहुड (२७ गा.), बोषपाहुड (६२ गा.), भावपाहुड (१६६ गा.), मोक्सपाहुड (१०६ गा.), लिंगपाहुड (२२ गा.), और सीलपाड (४० गा.) प्रधान ग्रन्थ हैं। इनमें निश्चय नय की दृष्टिसे आत्मा की विशुद्धावस्था को प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है । इनकी भाषा शौरसेनी है। __ अनेकान्त का सम्यक् विवेचन करने वालों में आचार्य सिद्धसेन (५-६ वीं शती) शीर्षस्थ हैं जिन्होंने 'सम्मइसुत्त' (१६७ गा.) लिखकर प्राकृत में दार्शनिक ग्रन्थ लिखने का मार्ग प्रशस्त किया । यह अन्य तीन खण्डों में विभक्त है- नय, उपयोग और अनेकान्तवाद । अभयदेवने इसपर २५०० श्लोक प्रमाण तत्त्वबोधविधायिनी नामक टीका लिखी। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । इसी प्रकार आचार्य देवसेन का लघुनयचन्द्र (६७ गा.) और माइलषवल का वृहन्मयचक्र (४२३ गा.) भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। किसी अज्ञात कवि का जीवसमास (२८६ गा.), शान्तिसूरि (११ वीं शती) का जीववियार (५१ गा.), अभयदेवसूरि की पण्णवणातइयपयसंगहणी (१३३ गा.), अज्ञात कवि की जीवाजीवाभिगमसंगहणी (२२३ गा.), जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का समयखित्तसमास (६३७ गा.), राजशेखरसूरि की क्षेत्रविचारणा (३६७ गा.), नेमिचन्द्रसूरि का पवयण सारद्वार (१५९९ गा.), सोमतिलकसूरि (वि. सं. १३७३) का सत्तरिसय ठाणपयरण (३५९ गा.), देवसरि का जीवाणुसासण (४२३ गा.) आदि रचनाओं में सप्त तत्वों का सांगोपांग विवेचन मिलता है। धर्मोपदेशात्मक साहित्य भी प्राकृत में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जीवनसाधना की दृष्टि से यह साहित्य लिखा गया है। धर्मदाससंगणी
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy