SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. सुरियपत्ति में २० पाहुड, और १०८ सूत्र हैं जिनमें सूर्य, चन्द्र बार नक्षत्रों की गति नादि का वर्णन मिलता है । इस पर भद्रबाहु ने नियुक्ति और मलयगिरि ने टीका लिखी है। ६. जम्बूवीवपत्ति-दो भागों में विभाजित है-पूर्वार्ध और उत्तरार्ष। पूर्षि में चार और उत्तरार्ष में तीन वक्षस्कार (परिच्छेद) है तथा कुल १७१ सूत्र हैं । जिनमें जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, नदी, पर्वत, कुलकर आदि का वर्णन है। यह नायाधम्मकहाओ का उपांग माना जाता है। ७. चंपत्ति में बीस प्राभृत हैं और उनमें चन्द्र की गति आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है । इसे उपासगदसाओ का उपांग माना जाता है। • ८. निरयापलिया-अथवा कप्पिया में दस अध्ययन हैं जिनमें काल, सुकाल, महाकाल, कण्ठ, सुकण्ह महाकण्ह, वीरकण्ह रामकण्ह, पिउसेणकण्ह और महासेणकण्ह का वर्णन है । ९. कप्यारिसिया-में भी दस अध्ययन है जिनमें पउम, महापउम, भद्द, सुभद्द, पउमभद्द, पउमसेण, पउमगुम्म, नलिणिगुम्म, आणंद व नंदण का वर्णन है। १०. पुफिया में भी दस अध्ययन हैं जिनमें चंद, सूर, सुक्क, बहुपुत्तिया, पुषभद्द, गणिमद्द, दत्त, सिव, बल और अणाढिय का वर्णन है । ११. पुप्फबूला में भी दस अध्ययन हैं-सिरि, हिरि, धिति, कित्ति, बुद्धि, लच्छी, इलादेवी, सुरादेवी, रसदेवी और गन्धदेवी । १२. बहिवसामो में बारह अध्ययन हैं-निसठ, माअनि, वह, वण्ह, पगता, जुत्ती, दसरह, दढरह, महाषणू, सत्तषणू, दसघणू और सयधणू। ये उपांग सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्त्व के हैं। आठवें उपांग से लेकर बारहवें उपांग तक को समग्र रूप में 'निरयावलिओ' भी कहा गया है। ३. मूलसूत्र डॉ. शुकिंग के अनुसार इनमें साधु जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश 'गमित है इसलिए इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है । उपांगों के समान मूलसूत्रों का भी उल्लेख प्राचीन भागमों में नहीं मिलता। इनकी मूलसंख्या में भी मतभेद है।कोई इनकी संख्या तीन मानता है-उत्तराध्ययन, आवश्यक और दसवैकालिक बोर कुछ विद्वानों ने पिण्डनियुक्ति और ओपनियुक्ति को सम्मिलितकर उनकी संख्या चार कर दी है।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy