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________________ सयोगो (इवेन्टस) के बीच का अन्तराल (इन्टरवल) ही भौतिक पदार्थ की रचना करने वाले तत्त्वाशो का सम्बन्ध सिद्ध करता है । जिसे देश और काल के तत्त्वो से अन्वित या विश्लिप्ट कर समझा जा सकता है। वैज्ञानिको द्वारा प्रतिपादित काल विषयक उपर्युक्त उद्धरणो और जैन दर्शन मे प्रतिपादित काल के स्वरूप में आश्चर्यजनक समानता तो है ही साथ ही इनमें आया हुआ दिक् विपयक वर्णन जैन दर्शन मे वरिणत आकाश द्रव्य के स्वरूप को भी पुष्ट करता है। व्यावहारिक काल ठाणाग सूत्र (४/१३४) मे काल के ४ प्रकार बताये गये है.प्रमाण काल, यथायनिवत्ति काल, मरण काल और अद्धा-काल । काल के द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं, इसलिए उसे प्रमाण काल कहा जाता है । जीवन और मृत्यु भी काल-सापेक्ष हैं, इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायुनिवृत्ति काल और उसके अन्त को मरण-काल कहा जाता है। सूर्यचन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला अद्धा-काल कहलाता है । काल का प्रधान रूप अद्धा काल ही है। शेष तीनो इसी के विशिष्ट रूप है। अद्धाकाल व्यावहारिक काल है। यह मनुष्य लोक मे ही होता है। इसीलिए मनुप्य लोक को 'समय-क्षेत्र' कहा गया है। समय-क्षेत्र मे वलयाकार से एक दूसरे को परिवेष्ठित करने वाले असख्य द्वीप समुद्र हैं। इनमे जम्बू द्वीप, लवण समुद्र, वातकी खण्ड, कालोदधि समुद्र और अर्द्ध पुष्कर द्वीप ये पाँच तिर्यग लोक के मध्य में स्थित हैं। निश्चय काल जीव अजीव का पर्याय है। वह लोक-अलोक व्यापी है। उसके विभाग नही होते, पर श्रद्धाकाल मूर्य-चन्द्र आदि की गति से सम्बन्धित होने के कारण विभाजित किया जाता है। इसका सर्वसूक्ष्म भाग 'समय' कहलाता है। आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश मे परमाणु गमन करता है, इतने काल का नाम 'समय' है । समय अविभाज्य है । इमकी प्ररूपणा वस्त्र फाडने की प्रक्रिया द्वारा की जाती है। एक दर्जी किसी जीर्णशीर्ण वस्त्र को एक ही बार मे एक हाथ प्रमाण फाड डालता है। उमके फाडने मे जितना काल व्यतीत होता है उसमे असख्यात समय व्यतीत हो जाते है। क्योकि वस्त्र तन्तुओ का वना है। प्रत्येक तन्तु मे अनेक रुएँ होते है। उनमे भी ऊपर का रुत्रां पहले छिदता ७५
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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