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________________ गया है उससे दुगुना बल चक्रवर्ती मे होता है। तीर्थकर चक्रवर्ती से भी अधिक बलशाली होते हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि वीरता के दो प्रकार है-एक बहिमुखी वीरता और दूसरी अन्तर्मुखी वीरता। बहिर्मुखी वीरता की अपनी सीमा है । जैन दर्शन मे उसके कीर्तिमान माने गये है चक्रवर्ती जो भरत क्षेत्र के छह खण्डो पर विजय प्राप्त करते है । लौकिक महाकाव्यो मे-रामायण, महाभारत, पृथ्वीराज रासो-मे बहिर्मुखी वीरो के अतिरजनापूर्ण यशोगान भरे पडे हैं। जैन साहित्य मे भी ऐसे वीरो का उल्लेख और वर्णन आता है, पर उनकी यह वीरता जीवन का ध्येय या आदर्श नही मानी गयी है। जैन इतिहास में ऐसे सैकडो वीर राजा हो गये हैं, पर वे वन्दनीय, पूजनीय नहीं हैं। वे वन्दनीय पूजनीय तब बनते हैं जब उनकी बहिर्मुखी वीरता अन्तमुखी बनती है। इन अन्तमूखी वीरो मे तीर्थकर, केवली, श्रमण, श्रमणियाँ आदि आते है । बहिमुखी वीरता के अन्तर्मुखी वीरता मे रूपान्तरित होने का आदर्श उदाहरण भरत-बाहुबली का है । भरत-चक्रवर्ती बाहुबली पर विजय प्राप्त करने के लिए विराट् सेना लेकर कूच करते हैं। दोनो सेनाओ मे परस्पर युद्ध होता है। अन्तत भयकर जन-सहार से बचने के लिए दोनो भाई मिलकर निर्णायक द्वन्द्व-युद्ध करने के लिए सहमत होते हैं। दोनो मे दृष्टि-युद्ध, वाक्-युद्ध, बाहु-युद्ध होता है और इन सब मे भरत पराजित हो जाते हैं । तब भरत सोचते हैं क्या बाहुबली चक्रवर्ती है जिससे कि मैं कमजोर पड रहा हूँ? इस विचार के साथ ही वे आवेश मे आकर बाहुबली के सिरच्छेदन के लिए चक्ररत्न से उस पर वार करते हैं। बाहुबली प्रतिक्रिया स्वरूप क्रुद्ध हो चक्र को पकडने का प्रयत्न करते हुए मुष्टि उठाकर सोचते है-मुझे धर्म छोडकर भ्रातृवध का दुष्कर्म नही करना चाहिए। ऋषभ को सन्तानो की परम्परा हिंसा की नहीं, अपितु अहिसा को है। प्रेम ही मेरी कुल-परम्परा है। किन्तु उठा हुआ हाथ खाली कैसे जाये? उन्होने विवेक से काम लिया, अपने उठे हुए हाथ को अपने ही सिर पर दे मारा और बालो का लु चन करके वे श्रमण बन गये। उन्होने ऋषभ देव के चरणो मे वही से भावपूर्वक नमन किया, कृत अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की और उग्र तपस्या कर अह का विसर्जन कर, मुक्ति.रूपी वधू . का वरण किया। भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि, महावीर आदि तीर्थंकर अन्तर्मुखी
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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