SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्योकि वह वधू का वरण करता है, वरण कर लेने पर ही वर वीर बनता है । इसमे श्रेष्ठता का भाव भी अनुस्यूत है। इस दृष्टि से वीर भाव एक आदर्श भाव है जिसमे श्रेष्ठ समझे जाने वाले मानवीय भावो का समुच्चय रहता है। वीर भाव और आत्म स्वातन्त्र्य वीर भावना के मूल मे जिस उत्साह की स्थिति है वह पुरुषार्थ प्रधान है । पुरुषार्थ की प्रधानता व्यक्ति को स्वतत्र और आत्म-निर्भर बनाती है। वह अपने मुख-दुख, हानि-लाभ, निन्दा-प्रशंसा, जीवन-मरण आदि में किसी दूसरे पर निर्भर नही रहता । आत्म कर्तृत्व का यह भाव जैन दर्शन का मूल आधार है अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, दुपठिन सुप्पट्ठिओ ।' अर्थात् आत्मा ही सुख-दुःख देने वाली तथा उनका नाश करने वाली है । सत् प्रवृत्ति मे लगी हुई आत्मा ही मित्र रूप है जवकि दुष्प्रवृत्ति मे लगी हुई आत्मा ही शत्रु रूप है। इस वीर भावना का आत्मस्वांतत्र्य से गहरा सम्बन्ध है। जैन मान्यता के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतत्र अस्तित्व वाला द्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिए न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है। इस दृष्टि से जीव को अपना स्वामी स्वय कहा गया है । उसकी स्वाधीनता और पराधीनता उसके स्वय के कर्मों के अधीन है। राग-द्वेष के कारण जब उसकी आत्मिक शक्तियाँ श्रावृत्त हो जाती है तव वह पराधीन हो जाती है। अपने सम्यज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप द्वारा जब वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मो का नाश कर देता है तब उसकी आत्म शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो जाती हैं और वह जीवन मुक्त अर्थात् अरिहंत बन जाता है । अपनी शक्तियो को प्रस्फुटित करने मे किसी की कृपा या दया कारणभूत नही बनती। स्वय उसका पुरुषार्थ या वीरत्व ही सहायक वनता है । अपने वीरत्व और पुरुषार्थ के वलपर साधक अपने कर्म-फल मे १-उत्तराध्ययन २०/३७ - -
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy