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________________ चत्तारि परमगाणि, दुल्लहाणीह जतुणो । माणुसत्त सुई सद्धा, सजमम्मि य वीरीय ।। -उत्तराध्ययन ३/१ समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म का लोकसग्राहक रूप स्थल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक है, वाह्य की अपेक्षा आन्तरिक अधिक है । उसमे देवता बनने के लिए जितनी तडप नही, उतनी तडप ससार को कपाय आदि पाप कर्मो से मुक्त कराने की है। इस मुक्ति के लिए वैयक्तिक अभिक्रम की उपेक्षा नही की जा सकती जो जैन साधना के लोक सग्राहक रूप की नीव है। जैन धर्म-जीवन-सम्पूर्णता की हिमायती सामान्यतः यह कहा जाता है कि जैन धर्म ने ससार को दुखमलक बताकर निराशा की भावना फैलाई है, जीवन मे मयम और विराग की अधिकता पर बल देकर उसकी अनुराग भावना और कला प्रेम को कुंठित किया है । पर यह कथन साधार नहीं है, भ्रातिमूलक है । यह ठीक है कि जैन धर्म ने ससार को दुःखमूलक माना, पर किसलिए? अखण्ड आनन्द की प्राप्ति के लिए, शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए। यदि जैन धर्म ससार को दुखपूर्ण मानकर ही रुक जाता, मुख-प्राप्ति की खोज नही करता, उसके लिए साधना-मार्ग की व्यवस्था नही देता तो हम उसे निराशावादी कह सकते थे, पर उसमे तो मानव को महात्मा बनाने की, नर को नारायण वनाने की, आत्मा को परमात्मा बनाने की आस्था का वीज छिपा हुआ है । देववाद के नाम पर अपने को असहाय और निर्वल समझी जाने वाली जनता को किसने आत्म-जागृति का सन्देश दिया ? किसने उसके हृदय मे छिपे हुए पुरुषार्थ को जगाया ? किसने उसे अपने भाग्य का विधाता बनाया। जैन धर्म की यह विचार-धारा युगो वाद आज भी बुद्धिजीवियो की धरोहर बन रही है, सस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रही है। यह कहना भी कि जैन धर्म निरा निवृत्तिमूलक है, ठीक नही है । जीवन के विधान पक्ष को भी उसने महत्त्व दिया है। इस धर्म के उपदेशक तीर्थकर लौकिक-अलौकिक वैभव के प्रतीक हैं। दैहिक दृष्टि से वे अनन्त बल, अनन्त सौन्दर्य और अनन्त पराक्रम के धनी होते हैं । इन्द्रादि मिलकर
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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