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________________ सांस्कृतिक समन्वय और भावनात्मक एकता धर्म और संस्कृति सस्कृति जन का मस्तिष्क है और धर्म जन का हृदय । जब-जब सस्कृति ने कठोर रूप धारण किया, हिंसा का पथ अपनाया, अपने रूप को भयावह व विकृत बनाया, तब-तब धर्म ने उसे हृदय का प्यार लुटा कर, मैत्री और करुणा की बरसात कर, उसके रक्तानुरंजित पथ को शीतल और अमृतमय बनाया। सयम, तप और सदाचार से उसके जीवन को सौन्दर्य और शक्ति का वरदान दिया। मनुष्य की मूल समस्या है-आनन्द की खोज । यह आनन्द तब तक नही मिल सकता जब तक कि मनुष्य भय-मुक्त न हो, आतक-मुक्त न हो। इस भय-मुक्ति के लिये दो शर्ते आवश्यक है। प्रथम तो यह कि मनुष्य अपने जीवन को इतना शीलवान, सदाचारी और निर्मल बनाये कि कोई उससे न डरे । द्वितीय यह कि वह अपने मे इतना पुरुषार्थ, सामर्थ्य और बल सचित करे कि कोई उसे डरा-धमका न सके । प्रथम शर्त को धर्म पूर्ण करता है तो दूसरी को सस्कृति । जैन धर्म और मानव-संस्कृति जैन धर्म ने मानव सस्कृति को नवीन रूप ही नही दिया, उसके अमूर्त भाव तत्त्व को प्रकट करने के लिए सभ्यता का विस्तार भी किया। प्रथम तीर्थंकर-ऋषभदेव इस मानव-सस्कृति के सूत्रधार बने । उनके पूर्व युगलियो का जीवन था, भोगमूलक दृष्टि की प्रधानता थी, कल्पवृक्षो के आधार पर जीवन चलता था। कर्म और कर्तव्य की भावना सुषुप्त थी।
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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