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________________ (१) भूखे को भोजन देना (अन्न पुण्य), (२) प्यासे को पानी (पेय पदार्थ) पिलाना, (पान पुण्य), (३) जरूरतमन्द को मकान आदि देना (स्थान पुण्य), (४) पाट, विस्तर आदि देना (शयन पुण्य), (५) वस्त्र आदि देना (वस्त्र पुण्य), (६) मन, (७) वचन और (८) शरीर की शुभ प्रवृत्ति से समाज सेवा करना (मन पुण्य, वचन पुण्य और काय पुण्य) तथा (६) पूज्य पुरुषो और समाज सेवियो के प्रति विनम्र भाव प्रकट करते हए उनका सम्मान-सत्कार करना (नमस्कार पुण्य)। आज भी विभिन्न व्यक्तियो और सस्थानो-द्वारा गरीबो, विधवाओ और असहायो के लिये कई पारमार्थिक कार्य ट्रस्टो द्वारा सम्पन्न होते हैं 1 आवश्यकता से अधिक सचय न करना और मर्यादा से अधिक प्राप्य सम्पत्ति को जरूरतमन्द लोगो मे वितरित कर देने की भावना ही जन कल्याण के कार्य को आगे बढाती है । दान या त्याग का यह रूप केवल रूढि पालन नहीं है। समाज के प्रति दायित्व बोध भी है। दान का उद्देश्य समाज मे ऊँच-नीच का स्तर कायम करना नही, वरन् जीवन रक्षा के लिये आवश्यक वस्तुओ का समवितरण करना है। धर्म शासन इस प्रवृत्ति पर जितना बल देता है उतना ही वल जनतात्रिक समाजवादी शासन व्यवस्था भी देती है। जैन दर्शन मे दान का यह पक्ष केवल अर्थ दान तक ही सीमित नही है । यहाँ अर्थदान से अधिक महत्त्व दिया गया है आहार दान, औषध दान, ज्ञान दान और अभय दान को । उत्तम दान के लिये यह आवश्यक है कि जो दान दे रहा है वह निष्काम भावना से दे और जो दान ले रहा है उसमे किसी प्रकार की दीन या हीन भावना पैदा न हो । दान देते समय दानदाता को मान सम्मान की भूख नही होनी चाहिये । निर्लोभ और निरभिमान भाव से किया गया दान ही सच्चा दान है । दाता के मन मे किसी प्रकार का ममत्व भाव न रहे, इसी दष्टि से शास्त्रो मे गुप्तदान की महिमा बतायी गई है। दान की होड मे येन-केन प्रकारेण धन बटोरने की प्रवृत्ति आत्मलक्षी व्यक्ति के लिये हितकर नही हो सकती। दान में मात्रा का नही, गुणात्मक्ता का महत्त्व है । नीति और न्याय से अजित सम्पदा का दान ही वास्तविक दान है। आवश्यकता से अधिक वस्तु का सचय न
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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