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________________ १. श्रम की प्रतिष्ठा 4 जैन मान्यता के अनुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था मे जब प्राकृतिक कल्पवृक्षादि साधनो से आवश्यकताओ की पूर्ति होना सभव न रहा, तब ऋषभदेव ने असि, मसि और कृषि रूप जीविकोपार्जन की कला विकसित की और समाज को प्रकृति निर्भरता से श्रमजन्य ग्रात्मनिर्भरता की ओर उन्मुख किया । जैन-दर्शन मे आत्मा के पुरुषार्थ और श्रम की विशेष प्रतिष्ठा है । व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल पर ही आत्मसाधना कर परमात्म- दशा प्राप्त कर सकता है । इस दशा को प्राप्त करने के लिये किसी अन्य का पुरुषार्थ उसके लिये मार्गदर्शक और प्रेरक तो बन सकता है, पर सहायक नही । इसी दृष्टि से भगवान् महावीर ने अपने साधनाकाल मे इन्द्र की सहायता नही स्वीकार की और स्वय के पुरुषार्थ पराक्रम के बल पर ही उपसर्गों का समभाव पूर्वक सामना किया । ' उपासक दशाग' सूत्र मे भगवान् महावीर और कुम्भकार सद्दालपुत्र का जो प्रसग वर्णित है, उससे स्पष्ट होता है कि गोशालक का आजीवक मत नियतिवाद का विश्वासी है जबकि महावीर का मत आत्म पुरुषार्थ और आत्म पराक्रम को ही अपनी उन्नति का केन्द्र मानता है । जैन साधु को 'श्रमण' और जैन श्रावक को 'श्रमणोपासक' कहा जाना भी इस दृष्टि से अर्थवान बनता है । तप के बारह भेदो मे 'भिक्षाचरी' और 'कायक्लेश' तथा दैनन्दिन प्रतिलेखन और परिमार्जन का क्रम भी प्रकारान्तर से साधना के क्षेत्र मे शारीरिक श्रम की महत्ता प्रतिष्ठापित करते हैं । → साधना के क्षेत्र मे प्रतिष्ठित श्रम की यह भावना सामाजिक स्तर पर भी समादृत हुई । भगवान् महावीर ने जन्म के आधार पर मान्य वर्ण व्यवस्था को चुनौती दी और उसे कर्म प्रर्थात् श्रम के आधार पर प्रतिष्ठापित किया। उनका स्पष्ट उद्घोष था - कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनता है । दूसरे शब्दो में उन्होने 'जन्मना' जाति के स्थान पर 'कर्मणा समूह' को मान्यता दी और इस प्रकार सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार कर्म शक्ति को बनाया । इसी बिन्दु से श्रम अर्थ व्यवस्था से जुडा और कृषि, गोपालन, वाणिज्य आदि की प्रतिष्ठा बढी । 14 ३३
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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