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________________ समतावादी समाज-रचना के आधिक तत्व जीवन के चार पुत्पार्थ माने गये हैं। वर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । वर्म के साथ अर्थ रखने का फलितार्थ यह है कि अर्थ का उपगेग वर्म द्वारा नियन्त्रित हो और धर्म अर्थ द्वारा प्रवृत्यात्मक बने। इन दृष्टि से वर्मअर्य का यह सम्बन्ध संतुलित अर्थ व्यवस्ण और सामाजिक समानता स्थापित करने में सहायक बनता है। धर्म अन्तर बी सुषप्त शक्ति को जागृत करने के साथ-साथ शरीर-नक्षण के लिये आवश्यक व्यवस्था भी देता है । इनी वरातल पर धर्म आर्थिक तत्वों से जुड़ना है। जैन धर्म केवल निवृनिवादी दर्शन नहीं है। इसमे प्रवृत्तिमूलक धर्म के नेक तत्व विद्यमान हैं। वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के उचित समन्वय से ही धर्म का लोकोपकारी रूप प्रकट होता है। पहना तो यह चाहिये कि धर्म का प्रवृत्ति रूप हो उसकी आन्तरिसत्ता को, उसकी अमर्तता को उजागर करता है। उदाहरण के लिए अहिंसा वम की आन्तरिक्ता किसी को नहीं मारने तर ही नीमित नहीं है। वह दूसरों को अपने तुल्य नमभ्ने, उनसे प्रेम करने जैसे विश्वात्म भाव में प्रतिफलित होती है । इस दृष्टि से जैन धर्म मे ज्हा एक लोर संसार त्यागी, अपरिग्रही, पंच महान्त वारी साधु (भ्रमण) हैं वहां दूसरी ओर ससार में रहते हुए मर्यादित प्रवृत्तिगं करने वाले अणुवतगरी श्रावक (सद्गृहत्य) भी हैं । जैन धर्मावलम्बी मात्र साधु हो नहीं है, बड़े-बड़े रानानहाराजा, दीवान और कोपाध्यक्ष, सेनापति और क्लेिदार तथा सेठसाहूकार भी इसके मुत्य उपासक रहे हैं। यही नहीं, वैभव सम्पन्नता,
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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