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________________ प्रति । हो, जो आगमादि ज्ञान के विशिष्ट व्याख्याता हैं, और जिनके सान्निध्य मे रहकर दूसरे अध्ययन करते है, उन उपाध्यायो को नमस्कार हो, लोक मे जितने भी सत्पुरुष हैं उन सभी साधुत्रो को नमस्कार हो, चाहे वे किसी जाति, धर्म, मत या तीर्थ से सम्बन्धित हो । कहना न होगा कि नमस्कार मन्त्र का यह गुगनिष्ठ आधार जैन दर्शन की उदार - चेता सार्वजनीन भावना का मेरुदण्ड है । 1 (३) जैन दर्शन मे आत्म-विकास अर्थात् मुक्ति को सम्प्रदाय के साथ नही बल्कि सदाचरण व धर्म के साथ जोडा गया है । महावीर ने कहा कि किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय मे दीक्षित, किसी भी लिंग मे स्त्री हो या पुरुष, किसी भी वेश मे साधु हो या गृहस्थ, व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है । उसके लिए यह आवश्यक नही कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्म सघ मे हो दीक्षित हो । महावीर ने अश्रुत्वा केवली को - जिसने कभी भी धर्म को सुना भी नही, परन्तु चित्त की निर्मलता के कारण, केवल- ज्ञान की कक्षा तक पहुचाया है । पन्द्रह प्रकार के सिद्धो मे जो किसी सम्प्रदाय या धार्मिक परम्परा से प्रेरित होकर नही, बल्कि अपने ज्ञान से प्रबुद्ध होते हैं, सम्मिलित कर महावीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध करदी है । आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट कहा है --- पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष कपिलादिषु । युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः ।। अर्थात् महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नही है और कपिल आदि के प्रति मेरा द्वेष नही है । मैं उसी वाणी को मानने के लिए तैयार हू जो युक्ति युक्त है । वस्तुत: धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है । निरपेक्षता अर्थात् अपने लगाव और दूसरो के द्वेष भाव से परे रहने की स्थिति । इसी अर्थ मे जैन दर्शन में धर्म की 'विवेचना करते हुए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है । जब महावीर से पूछा गया कि आप जिसे नित्य, ध्रुव और शाश्वत धर्म कहते है वह कौनसा है - तब उन्होंने कहा -- किसी प्राणी को मत मारो, उपद्रव मत २८
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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