SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रति सहयोगी बनना उसका मूल स्वभाव है । अन्त करण मे सेवा-भाव का उद्रेक तभी होता है जब आत्मवत् सर्वभूतेपु जैसा उदात्त विचार शेप सृष्टि के साथ प्रात्मीय सम्बन्ध जोड पाता है । इस स्थिति मे जो सेवा की जाती है वह एक प्रकार से सहज स्फूर्त सामाजिक दायित्व ही होता है । लोक-कल्याण के लिए अपनी सम्पत्ति विसर्जित कर देना एक वात है और स्वय सक्रिय घटक बन कर सेवा कार्यों में जुट जाना दूसरी बात है । पहला सेवा का नकारात्मक रूप है जबकि दूसरा सकारात्मक रूप । इसमे सेवाव्रती "स्लीपिंग पार्टनर" वन कर नही रह सकता, उसे सजग प्रहरी बन कर रहना होता है। श्रावक के बारह व्रतो मे पांचवा परिग्रह परिमाण व्रत सेवा के नकारात्मक पहल को सूचित करता है जबकि ग्यारहवा पौषध व्रत और बारहवा अतिथि सविभाग व्रत सेवा के सकारात्मक पहलू को उजागर करता है। लोक सेवक मे सरलता, सहृदयता और सवेदनशीलता का गुण होना आवश्यक है। सेवाव्रती को किसी प्रकार का अहम् न छू पाए और वह सत्तालिप्सु न बन जाए, इस बात की सतर्कता पद-पद पर बरतनी जरूरी है । विनय को जो धर्म का मूल कहा गया है, उसकी अर्थवत्ता इस सन्दर्म मे वडी गहरी है । लोकसेवा के नाम पर अपना स्वार्थ साधने वालो को महावीर ने इस प्रकार चेतावनी दी है . असविभागी असगहरूई अप्पमाणभोई, से तारिसए नाराहए वयमिण । अर्थात् जो असंविभागी है-जोवन साधनो पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर दूसरो के प्रकृति प्रदत्त सविभाग को नकारता है, असग्रह रुचि-जो अपने लिए ही सग्रह करके रखता है और दूसरो के लिए कुछ भी नही रखता, अप्रमाण भोजी-मर्यादा से अधिक भोजन एव जीवन-साधनो का स्वय उपभोग करता है, वह आराधक नही विराधक है। ४. धर्मनिरपेक्षता :-स्वतन्त्रता, समानता और लोक-कल्याण का भाव धर्म-निरपेक्षता की भूमि मे ही फल-फूल सकता है । धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म विमुखता या धर्म रहितता न होकर असाम्प्रदायिक भावना २६
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy