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________________ जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व जन मान्यता के अनुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था मे वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीनो कालो मे जीवन अत्यन्त सरल एव प्राकृतिक था । तथाकथित कल्प वृक्षो से आवश्यकताओ की पूर्ति हो जाया करती थी। यह अकर्म भूमि भोग भूमि का काल था । पर तीसरे काल के अन्तिम पाद मे काल चक्र के प्रभाव से इस अवस्था में परिवर्तन आया और मनुष्य कर्म भूमि की ओर अग्रसर हुआ। उसमे मानव सम्बन्धपरकता का भाव जगा और पारिवारिक व्यवस्था-कुल व्यवस्था-सामने आई । इसके व्यवस्थापक कुलकर या मनु कहलाये जो विकास क्रम मे चौदह हुए । कुलकर व्यवस्था का विकास आगे चलकर समाज सगठन के रूप मे हुआ और इसके प्रमुख नेता हुए २४ तीर्थङ्कर तथा गौण नेता ३६ अन्य महापुरुष (१२ चक्रवर्ती, ६ वलदेव, ६ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव) हुए जो सब मिल कर त्रिषष्ठिश्लाका पुरुप कहे जाते है। उपर्युक्त पृष्ठभूमि मे यह कहा जा सकता है कि जैन दृष्टि से धर्म केवल वैयक्तिक आचरण ही नही है, वह सामाजिक आवश्यकता और समाज व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक भी है। जहा वैयक्तिक आचरण को पवित्र और मनुष्य की आतरिक शक्ति को जागृत करने की दृष्टि से क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, सयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य जैसे मनोभावाधारित धर्मों की व्यवस्था है, वहा सामाजिक चेतना को विकसित और सामाजिक संगठन को सुदृढ तथा स्वस्थ बनाने की दृष्टि से ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, कुल धर्म, गण धर्म, सघ धर्म जैसे समाजोन्मुखी १८
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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